बिठोडा
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गावं के आसपास
या सड़क के किनारे
जब भी देखता हूँ
गोबर के बने ,झोपड़ीनुमा
छोटे छोटे से घर
जिनमे सलीके से,
जमा कर रखे हुए होते है
गोबर के उपले या कंडे
और जिनकी दीवारों पर,
किसी कार्यकुशल गृहणी के
हाथों के छापों की सजावट होती है
वो हाथ ,जिनमे मेहंदी रचती है
वो हाथ ,जो सिहरन पैदा करतें है
वो हाथ,जो रोटियां सकतें है
उन्ही हाथों ने,गोबर को थेप थेप कर
ये उपले या कंडे गढ़ें है
जिन्हें सुखा कर रखती है वो ,
गोबर के बने इन बिठोड़ो में
ताकि बरसात के मौसम में
इनसे चूल्हा जला कर
सेक सके रोटियां
पेट की आग बुझाने को
और बची हुई राख से
मांझ सके घर के बर्तन
इन बिठोड़ो को देख कर,
याद आतें है मिश्र देश के पिरेमिड
जिन्हें बनाया गया था,
उपयोग हीन शवों को सुरक्षित रखने के लिए
तब लगता है की लोगों की सोच और संस्कृति में
कितना अंतर होता है
मदन मोहन बहेती 'घोटू'
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गावं के आसपास
या सड़क के किनारे
जब भी देखता हूँ
गोबर के बने ,झोपड़ीनुमा
छोटे छोटे से घर
जिनमे सलीके से,
जमा कर रखे हुए होते है
गोबर के उपले या कंडे
और जिनकी दीवारों पर,
किसी कार्यकुशल गृहणी के
हाथों के छापों की सजावट होती है
वो हाथ ,जिनमे मेहंदी रचती है
वो हाथ ,जो सिहरन पैदा करतें है
वो हाथ,जो रोटियां सकतें है
उन्ही हाथों ने,गोबर को थेप थेप कर
ये उपले या कंडे गढ़ें है
जिन्हें सुखा कर रखती है वो ,
गोबर के बने इन बिठोड़ो में
ताकि बरसात के मौसम में
इनसे चूल्हा जला कर
सेक सके रोटियां
पेट की आग बुझाने को
और बची हुई राख से
मांझ सके घर के बर्तन
इन बिठोड़ो को देख कर,
याद आतें है मिश्र देश के पिरेमिड
जिन्हें बनाया गया था,
उपयोग हीन शवों को सुरक्षित रखने के लिए
तब लगता है की लोगों की सोच और संस्कृति में
कितना अंतर होता है
मदन मोहन बहेती 'घोटू'