मजबूरी
(घोटू के छक्के)
१
पत्नी से कहने लगे,घोटू कवि कर जोड़
आप हमी को डांटती,हैं क्यों सबको छोड़
हैं क्यों सबको छोड़,पलट कर पत्नी बोली
मै क्या करूं, तेज,तीखी है मेरी बोली
नौकर चाकर वाले घर में बड़ी हुई हूँ
बड़े नाज और नखरों से मै पली हुई हूँ
२
पत्नी जी कहने लगी,जा घोटू कवि पास
बतलाओ फिर निकालूँ,मन की कहाँ भड़ास
मन की कहाँ भड़ास,अगर डाटूं नौकर को
दो घंटे में छोड़,भाग जाएगा घर को
सुनू एक की चार,ननद से जो कुछ बोलूँ
तुम्ही बताओ ,बैठे ठाले,झगडा क्यों लूं
३
सास ससुर है सयाने,करते मुझसे प्यार
उनसे मै तीखा नहीं,कर सकती व्यवहार
करसकती व्यवहार,मम्मी बच्चों की होकर
अपने नन्हे मासूमों को डांटू क्यों कर
एक तुम्ही तो बचते हो जो सहते सबको
तुम्ही बताओ,तुम्हे छोड़ कर ,डाटूं किसको ?
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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Wednesday, April 25, 2012
हो गयी माँ डोकरी है
हो गयी माँ डोकरी है
प्यार का सागर लबालब,अनुभव से वो भरी है
हो गयी माँ डोकरी है
नौ दशक निज जिंदगी के,कर लिए है पार उनने
सभी अपनों और परायों ,पर लुटाया प्यार उनने
सात थे हम बहन भाई,रखा माँ ने ख्याल सबका
रोजमर्रा जिंदगी के ,काम सब और ध्यान घर का
कभी दादी की बिमारी,पिताजी की व्यस्तायें
सभी कुछ माँ ने संभाला,बिना मुंह पर शिकन लाये
और जब त्योंहार आते,तीज,सावन के सिंझारे
सभी को मेहंदी लगाती,बनाती पकवान सारे
दिवाली पर काम करती,जोश दुगुना ,तन भरे वो
सफाई,घर की पुताई,मांडती थी,मांडने वो
और हम सब बहन भाई,पढाई में व्यस्त रहते
मगर सब का ख्याल रखती,भले थक कर पस्त रहते
गयी निज ससुराल बहने,भाइयों की नौकरी है
साथ बाबूजी नहीं है, हो गयी माँ डोकरी है
भूख भी कम हो गयी है,बिमारी है,क्षीण तन है
चाहती सब काम करना,मगर आ जाती थकन है
और जब त्योंहार आते,उन्हें आता जोश भर है
सभी रीती रिवाजों पर ,आज भी पूरा दखल है
ये करो, ऐसे करो मत,हमारी है रीत ऐसी
पारिवारिक रिवाजों को ,निभाने की प्रीत ऐसी
फोन करके,बहू बेटी को आशीषें बांटती है
कभी गीता भागवत सुन ,वक़्त अपना काटती है
भले ही धुंधलाई आँखें, मगर यादों से भरी है
हो गयी माँ डोकरी है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
प्यार का सागर लबालब,अनुभव से वो भरी है
हो गयी माँ डोकरी है
नौ दशक निज जिंदगी के,कर लिए है पार उनने
सभी अपनों और परायों ,पर लुटाया प्यार उनने
सात थे हम बहन भाई,रखा माँ ने ख्याल सबका
रोजमर्रा जिंदगी के ,काम सब और ध्यान घर का
कभी दादी की बिमारी,पिताजी की व्यस्तायें
सभी कुछ माँ ने संभाला,बिना मुंह पर शिकन लाये
और जब त्योंहार आते,तीज,सावन के सिंझारे
सभी को मेहंदी लगाती,बनाती पकवान सारे
दिवाली पर काम करती,जोश दुगुना ,तन भरे वो
सफाई,घर की पुताई,मांडती थी,मांडने वो
और हम सब बहन भाई,पढाई में व्यस्त रहते
मगर सब का ख्याल रखती,भले थक कर पस्त रहते
गयी निज ससुराल बहने,भाइयों की नौकरी है
साथ बाबूजी नहीं है, हो गयी माँ डोकरी है
भूख भी कम हो गयी है,बिमारी है,क्षीण तन है
चाहती सब काम करना,मगर आ जाती थकन है
और जब त्योंहार आते,उन्हें आता जोश भर है
सभी रीती रिवाजों पर ,आज भी पूरा दखल है
ये करो, ऐसे करो मत,हमारी है रीत ऐसी
पारिवारिक रिवाजों को ,निभाने की प्रीत ऐसी
फोन करके,बहू बेटी को आशीषें बांटती है
कभी गीता भागवत सुन ,वक़्त अपना काटती है
भले ही धुंधलाई आँखें, मगर यादों से भरी है
हो गयी माँ डोकरी है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'