चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी
सर्दी में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है
और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत जाती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'