Thursday, August 29, 2013

है डालरों से हम

               है डालरों से हम

बचपन से जवानी  तलक ,पाबंदी थी लगी ,
                ना स्कूलों में ऊँघे और ना दफ्तरों में हम
पर जबसे आया बुढ़ापा ,हम रिटायर हुए,
                 जी भर के ऊंघा  करते है ,अपने घरों में हम
बीबी को मगर इस तरह  ,आलस में ऊंघना ,
                  बिलकुल नहीं पसंद है ,रहती  है डाटती ,
कहती है दिन में सोने से  ,जगते है  रात को,
                    सोने न देते ,सताते,है बिस्तरों में  हम
अब ये ज़माना आ गया ,घर के घाट के,
                     अंकल जी कहके लड़कियां ना घास डालती,
कितने ही रंग लें बाल  और हम फेशियल  करें,
                      उड़ने का जोश ला नहीं ,सकते परों में हम
टी वी से या अखबार से अब कटता वक़्त है,
                        घर का कोई भी मेंबर ,हमको न पूछता ,
पावों को छुलाने की बन के चीज रह गए,
                         त्यौहार,शादी ब्याह के ,अब अवसरों में हम
हम दस के थे,डालर की भी ,कीमत थी दस रूपये ,
                          छांछट का है डालर हुआ ,छांछट के हुए हम,
फिर भी  हमारे बच्चे है  ,इतना न समझते ,
                             होते ही जाते कीमती, है डालरों से  हम

मदन मोहन बाहेती'घोटू;  

त्रिदेव

                      त्रिदेव

हिन्दू संस्कृति में सदैव
पूजे जाते है तीन देव
जिनका स्थान होता है विशेष
वो है ब्रम्हा ,विष्णू और महेश
सबसे पहले ब्रह्माजी ,जो है सृष्टी के कर्ता ,
जिन्होंने दुनिया को,हमको,आपको बनाया है
पर हमने अपने निर्माणकर्ता को ही भुलाया है
हम कितने संगदिल है
पूरे देश में ,ब्रह्मा जी के, बस एक या दो मंदिर है
और पूरे साल में ,कोई भी नहीं एसा दिन है  विशेष
जिस दिन इनकी होती है पूजा या  अभिषेक
वे परमपिता है
पर आज के युग में पिता को कौन पूछता है ?
दूसरे विष्णू जी ,जो पालन कर्ता है
इन्ही की मेहरबानी से ,सबका पेट भरता है
 जब भी धरती पर अत्याचार बढ़ता है
तो उसे मिटाने,इन्हें अवतार लेना  पड़ता है
बाकी समय ,समुन्दर में,शेषशैया पर,आराम फरमाते है
और अपनी पत्नी लक्ष्मी जी से ,पैर दबवाते है
अकेले मंदिरों में कम नज़र आते है
और अक्सर लक्ष्मी जी के साथ ,
लक्ष्मी नारायण रूप में पूजे जाते है
या फिर अपने राम और कृष्ण के रूप की पूजा करवाते है
इनसे ज्यादा ,इनकी पत्नी के  भक्त है
सारी दुनिया ,लक्ष्मी जी की सेवा में अनुरक्त है
 पर दीपावली को ,सिर्फ लक्ष्मी जी की पूजा होती है ,
विष्णुजी का नाम नदारद रहता है ,ये बात सालती है
पर ये भी  सच  है की पालनकर्ता तो विष्णू है ,
पर असल में लक्ष्मी जी सबको पालती है
तीसरे देवता ,शंकर जी है ,जो हर्ता है ,महादेव कहलाते है
पर कर्ता ,याने लिंग रूप में ज्यादा पूजे जाते है
कहते है ये भोले भंडारी है ,
थोड़ी सी भक्ती में ,जल्दी पिधल जाते है
पूरे देश में,बारह ज्योतिर्लिंगों के रूप में होता है इनका पूजन
अन्य  देवताओं की पूजा के लिए साल में एक दिन,
और इनकी पूजा के लिए पूरा सावन
और तो और ,इनकी 'मेरेज एन्नीवर्सरी 'भी ,
शिव रात्री के रूप में मनाई जाती है
दूर दूर से गंगाजल लाकर ,इन्हें कावड़ चढ़ाई जाती है
ये ही नहीं ,इनके संग  पूजा जाता है इनका पूरा परिवार
और इनके पुत्र गणेशजी ,हर शुभ काम में,
हमेशा प्रथम पूजन के है हक़दार
देश में  सबसे ज्यादा मंदिर इनके
इनकी पत्नी और बेटे गणेश के है
इनके परिवार के लोग ,
सबसे ज्यादा पूजनीय इस देश के है 
ये संहारक है ,इसलिए लोग इनसे डरते है
और इनका मूड गरम न हो जाए  ,
इसलिए जल चढ़ा कर ठंडा रखते है
ये सच है ,भय के बिना होती नहीं प्रीत है
इसीलिए तीन देवों में ये महादेव है ,और इनकी जीत है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, August 26, 2013

मोर,कबूतर और आदमी

      मोर,कबूतर और आदमी

झिलमिलाते सात रंग है ,मोर के पंखों में सब,
नाचता है जब ठुमुक कर ,मोरनी को लुभाता
गौर से गर्दन कबूतर की अगर देखोगे तुम,
जब कबूतरनी को पटाने ,है वो गरदन हिलाता
रंग तब मोरों के पंखों के है सारे उभरते ,
गुटरगूं कर मटकाता है कबूतर गर्दन है जब
कबूतरनी मुग्ध होकर ,फडफडाती पंख है ,
प्यार का ये निमंत्रण मंजूर होता उसको तब
पंछियों के प्यार से ये सीखता है आदमी ,
पत्नीजी के इशारों पर ,नाचता है मोर सा
पत्नीजी को पटाने को वो कबूतर की तरह ,
हिलाता रहता है गर्दन ,हो बड़ा कमजोर सा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

संत

          संत

एक आदमी जो प्रवचन में सीटी बजाता है
नौटंकी करता है ,नाचता गाता है
लोगों को मर्दानगी की दवा बतलाता है
लोगो की जमीनो को  हड़पता है
मासूम बच्ची से  बलात्कार करता है
काले जादू के चक्कर में बच्चों की बलि चढ़ाता है
आज के युग में वो संत कहलाता है
घोटू

जवानी सलामत- बुढ़ापा कोसों दूर है

जवानी सलामत- बुढ़ापा कोसों दूर है

हम तो है ,कोल्ड स्टोरेज में रखे आलू ,
जब भी जरुरत पड़े,लो काम में,हम ताज़े है
ज़रा सी फूंक जो मारोगे ,लगेगे बजने ,
हम तो है बांसुरी ,या बिगुल,बेन्ड बाजे है
पुरानी चीज को रखते संभाल कर हम है ,
चीज 'एंटिक 'जितनी,उतना दाम बढ़ता है
बीबियाँ वैसे कभी पुरानी नहीं पड़ती ,
ज्यों ज्यों बढ़ती है उमर ,वैसे  प्यार बढ़ता है
वैसे भी दिल हमारा एक रेफ्रिजेटर  है ,
उसमे जो चीज रखी ,सदा फ्रेश  रहती है
हमारी बीबी सदा दिल में हमारे रहती ,
प्यार में ताजगी जो हो तो ऐश रहती  है
समय के साथ,जब बढ़ती है  उमर तो अक्सर,
लोग जाने क्यों ,खुद को बूढा समझने लगते
आदमी सोचता है जैसा,वैसा हो जाता ,
सोच कर बूढा खुद को बूढ़े  वो लगने लगते
सोच में अपने न आने दो उमर का साया,
जब तलक ज़िंदा हो तुम और जिंदगानी है
जब तलक है जवान मन और सोच तुम्हारा,
समझ लो ,तब तलक ही ,सलामत जवानी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्यार का गणित

          प्यार का गणित

प्यार करने में दर्जा माँ का ,है सबसे अधिक ऊपर ,
गर्भ से जब तलक ज़िंदा ,तुम्हारा ख्याल रखती है
पिताजी भी है करते प्यार ,पर थोड़े कड़क होते ,
मगर उतना नहीं,जितना कि माता प्यार करती है
प्यार करते है ,भाई बहन भी,जब तक न हो शादी,
मगर उपरान्त शादी के ,बदल जाता गणित सब है
और फिर जबसे आजाती है बीबी ,जिंदगानी  में,
टॉप पर प्यार करने की ,बीबियाँ जाती चढ़ अब है
बाद में ,बच्चे होते,वो भी तुमको प्यार करते है,
मगर जब शादी करके ,जाता है बस,उनका अपना घर
प्यार में अपनी बीबी के ,तुम्हे देते भुला बेटे,
मगर देखा गया है ,ख्याल रखती,बेटियां अक्सर
प्यार करते है बाकी और भी ,पर औपचारिक है,
लिमिट में ही करते प्यार तुमसे,दोस्त जो सारे
बुढापे में,तुम्हारा ख्याल रखती ,सिर्फ बीबी है ,
यही होता गणित है प्यार का  ,संसार में प्यारे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जंगल का कानून

    जंगल का कानून

आजकल तो हो गया जंगल का ये कानून है ,
की यहाँ पर कोई भी ,चलता नहीं क़ानून है
आम जनता सांस भी ले ,तो है ये उसका कसूर ,
और दबंगों के लिए तो,माफ़ सारे खून है  ,
रुपय्ये की साख गिरती जा रही है दिन ब दिन,
और चढ़ते आसमां पर ,जा रहे सब दाम है
आजकल बेख़ौफ़ होकर घूमते  है  दरिन्दे ,
औरतों की अस्मतों को ,लूटना अब आम है
जेल भरने के जो काबिल ,जेब भरते नेता बन,
करते खुल के गुंडा गर्दी , छूट है उनको  खुली
हो गयी है बड़ी गंदी ,राजनीति  इस तरह ,
माफिया को बचाने ,मासूम चढ़ते है सुली
शेर ने तो बाँध रख्खी ,अपने मुंह पर पट्टियाँ ,
रंगे सियारों के हाथों ,चल रही सरकार है
खाने के अधिकार का भी ,बन रहा क़ानून है ,
खूब खाओ,खाने का अब ,कानूनी अधिकार है
राजनीति ,आजकल ,पुश्तेनी धंधा बन गया ,
जिधर भी तुम हाथ डालोगे,उधर ही पोल है
गोलमालों का यहाँ पर ,सिलसिला थमता नहीं ,
इसका कारण ,ये भी है ,संसद भवन ही गोल है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, August 25, 2013

ये हमें क्या हो गया है

        ये हमें क्या हो गया है

हम पहले ,लूटपाट और गुंडागिर्दी करने वाले ,
दबंगों को चुनाव में वोट देकर ,सत्ता में बैठाते है
और फिर उनके अत्याचार और भ्रष्टाचार से ,
परेशान भी बहुत हो जाते है
हम पहले,प्रवचन में मर्दानगी की दवाइयां ,
परोसने वाले ,नाटकीय बहुरूपियों को ,
महान संत बतलाते है
और फिर उनके  जमीन हडपने,कालाजादू करने,
और मासूम बच्चियों पर बलात्कार के किस्से सुन ,
उन पर अपनी नाराजगी भी जतलाते है
क्या हममे पात्र और कुपात्र की,
 परख करने का विवेक ही खो गया है  
खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते है ,
और फिर रोते है,
ये हमें क्या हो गया है ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Friday, August 23, 2013

बरसात और शादी

                बरसात और शादी

तपिश से गर्मियों की तंग आ हम प्रार्थना करते ,
कि जल्दी आये मौसम बारिशों का और जल बरसे
अकेलेपन से आकर तंग ज्यों क्वांरा करे विनती ,
जल्द से जल्द बीबी जाए मिल,वो शादी को तरसे
शुरू में बारिशें जब आती है ,मन को सुहाती है,
बाद शादी के जैसे कुछ दिनों आनंद  आता है
मगर जब रोज बारिश की झड़ी लगती ,नहीं रुकती ,
पति भी रोज की फरमाइशों से  तंग आता है
कहीं गड्ढे ,कहीं कीचड,कहीं  पानी,कहीं सीलन ,
न जाने कब बरस जाए ,संग छाता रखो हरदम
मारे खर्चों के होता गीला आटा ,मुफलिसी में भी ,
बाद शादी के ,घर के बजट का ,होता यही आलम
बाद  बारिश के जैसे होती है पैदा नयी  फसलें,
बाद शादी के ऐसे अधिकतर ,परिवार बढ़ता है
बारिशें और शादी ,एक सी,खुशियाँ कभी आफत ,
बचो तुम लाख लेकिन भीगना सबको ही पड़ता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

Thursday, August 22, 2013

हुस्न का जादू

         हुस्न का जादू

तुम्हारे हुस्न का जादू ,चला है मेरे सर चढ़ कर
नहीं दुनिया में कोई भी,हसीं है तेरे से बढ़ कर
दिखा कर नाज़ और नखरे,हमारा दिल जलाती हो
कभी जाती लिपट और फिर छिटक के भाग जाती हो
बड़ी मादक  सी अंगडाई ,सवेरे उठ के जब लेती
कई छुरियां चलाती हो ,कलेजा चीर तुम देती
हमें बाहों में भर कर के ,नशा ,उन्माद भरती हो
और फिर छोडिये जी की,खुद  फ़रियाद करती हो
 बड़ी ही स्वाद ,प्यारी और मीठी ,चाकलेटी  हो
लगी हो जबसे होठों से,उतर की दिल में बैठी हो
अदाएं और जलवों से ,हमें बेबस भी करती हो
मज़ा भी पूरा लेती हो,और बस बस भी करती हो
ये सब अंदाज़ तुम्हारे,गजब के है,अजब से है
तुम्हारे इश्क में  पागल,दीवाने हम तो कब से है

मदन मोहन बाहेती'घोटू;

जन्म दिवस पर

  जन्म दिवस पर

उम्र सारी बेखुदी में कट गयी
उस सदी से इस सदी में कट गयी
जमाने ने ,ढाये कितने ही सितम ,
छाई गम की बदलियाँ और छट गयी
कौन अपना और पराया कौन है,
गलतफहमी थी,बहुत,अब हट गयी
मुस्करा कर सभी से ऐसे मिले ,
दूरियां और खाइयाँ सब पट गयी
बचपने में ,जवानी में और कुछ ,
उम्र अपनी बुढ़ापे में बंट  गयी
लोग कहते एक बरस हम बढ़ गए ,
जिन्दगी पर एक बरस है घट गयी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ना है या हाँ है

        ना है या हाँ है

मै तुमसे चाहता  जब कुछ,तुम टालमटोल करती हो,
समझ में ये नहीं आता ,तुम्हारे मन का सच क्या है
कभी गर्दन हिलाती हो,कभी नज़रें झुकाती हो,
पता ही लग नहीं पाता ,तुम्हारी हाँ है या ना है
मैंने ये देखा है अक्सर,इस तरह ना नुकुर कर कर ,
मज़ा लेती हो तुम जी भर,हमेशा का ये किस्सा है
हुआ करता सदा ये है,हसीनो की अदा ये है ,
कि उनकी ना ना का मतलब ,अधिकतर होता ही हाँ है

घोटू 

उल्फत का भूत

          उल्फत का भूत

गया था पूछने इतना ,की मुझको तुझसे उल्फत है,
वो इक तरफ़ा या दो तरफ़ा ,बतादे अपने उत्तर से
न तूने घास कुछ डाली,न पूछा तेरी  अम्मा ने ,
बड़ा बेरंग लिफ़ाफ़े सा ,मै लौटा हूँ ,तेरे घर से
रहा अच्छा ये कि तेरे ,नहीं अब्बा जी थे घर पर ,
नहीं बच नहीं पाते कोई भी बाल ,इस सर पे
कहा कुछ भी किसी ने ना ,मुझे पर मिल गया उत्तर ,
चढ़ा था भूत उल्फत का ,उतर अब है गया सर से
घोटू

छोटा -बड़ा

           छोटा -बड़ा

छोटी छोटी बातें कितनी ,दिल में जब जाती है चुभ
बन के फिर नासूर फिर ,दिनरात देती  दर्द है
छोटी छोटी ,होम्योपेथी की है होती गोलियां,
ठीक वो कर देती पर ,कितने पुराने मर्ज़  है
छोटी रहती उमर तब निश्चिन्त और आज़ाद हम,
बड़े हो के आती चिंताएं और जिम्मेदारियां
बड़ी होकर ,खून करती ,काटती ,तलवार है,
छोटी होकर ,सुई करती ,फटे रिश्तों को सियां
छोटी सी आँखे दिखाती है बड़ी दुनिया तुम्हे ,
छोटा दिल जब तक धडकता ,तब तलक जाता जिया
अहमियत को छोटी चीजो को नकारो तुम नहीं ,
उनकी छोटी 'हाँ 'ने जाने क्या क्या है तुमको दिया
सूर्य को ही देखलो ,दिखता है कितना छोटा पर ,
हो रहे है रोशनी से उसकी ,हम रोशन  सभी
छोटे मुंह से अपने मै ये बात कहता हूँ बड़ी ,
कोई भी छोटा बड़ा ना ,बराबर है हम सभी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बिठानी पड़ती गोटी है

   बिठानी पड़ती गोटी है

आजकल हर जगह कुछ इस तरह का हो रहा कल्चर ,
काम कोई हो करवाना ,बिठानी पड़ती  गोटी  है
जगह जो हो अगर छोटी,तो लगती है रकम छोटी ,
बड़ी जो हो जगह तो फिर ,वहां कीमत भी मोटी  है
यहाँ नंगे है सब अन्दर ,ढका है आवरण ऊपर ,
कहीं पर सूट ,साड़ी है, कहीं केवल  लंगोटी  है
भले ही आदमी बाहर से हो कितना बड़ा दिखता ,
मगर देखा हकीकत में कि होती सोच छोटी है
अंगूठे छाप सैकड़ों ही,खेलते है करोड़ों में,
कोई पढ़ लिख के मुश्किल से ,जुटा पाता दो रोटी है
 ये सारा खेल किस्मत का,लिखा जो ऊपर वाले ने,
किसी का भाग्य अच्छा है,कोई तकदीर खोटी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तो हम जाने

          तो हम जाने

दिखा कर रूप का जलवा ,जलाती हम को रहती हो,
रसोई घर में जा चूल्हा ,जलाओ तुम तो हम जाने
अदाएं और लटकों से ,हमें करती हो तुम घायल ,
कभी इन घावों पर मलहम ,लगाओ तुम तो हम जाने
चला कर तीर नज़रों के ,कलेजा चीर देती हो,
सुई हाथों में ले टांका , लगाओ तुम ,तो हम जाने
हमें अपने इशारों पर ,नचाती रोज रहती हो ,
कभी जंगल के मोरों को ,नचाओ तुम ,तो हम जाने

घोटू

अपनी अपनी किस्मत

       अपनी अपनी किस्मत

समंदर  के   किनारे ,ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत ,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धूप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद  पल लहरें, भिगा कर  भाग जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर  तडफडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर,दिया ये रेत ने उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन महिलायें
तपाने धूप  में अपना बदन ,जब है यहाँ आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगो को
भला ,ऐसे में ,मै भी रोक ना पाती उमंगों को
हसीनो का वो मांसल , गुदगुदा तन पास आता है
मज़ा अद्भुत निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
 चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही मिलता मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, August 21, 2013

पत्नी को रखना संभाल के

           पत्नी को रखना संभाल के

              हम लाये है ससुराल से ,मोती निकाल के
             इस पत्नी को अपनी सभी रखना संभाल के
लूटा  है हमको ,इसकी महोब्बत ने,अदा  ने
 आई है हम पे अपना सारा प्यार लुटाने    
जन्नत का मज़ा ,धरती पर ही हमको दिलाने
ये तो वो नियामत है जो बख्शी है खुदा ने
               है हुस्न की दौलत ये ,है जलवे  कमाल के
                इस पत्नी को अपनी सभी ,रखना संभाल के
दुनिया में सबसे बढ़ के हसीना है बीबियाँ
दिल में जड़ा के रखिये ,नगीना है बीबियाँ
साकी भी है,मय भी हैऔर मीना है बीबियाँ
सुख और अमन से जिन्दगी जीना  है बीबियाँ
              बीबी के बिना ,हम है बिना सुर और ताल है
               इस पत्नी को अपनी सभी,रखना संभाल  के
करती है प्यार छोटों से ,बूढों से , बड़ों से
बढ़ता है वंश आपका ,इनके ही भरोसे
 बच्चों को दे दुलार ये  है पाले और पोसे
खाना बनाके ,प्यार से ,सबको ये  परोसे
               इनके बिना ,पड़ जाते लाले ,रोटी  दाल के
               इस पत्नी को अपनी ,सभी ,रखना संभाल के

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

तकिया- तूने क्या क्या किया

      तकिया- तूने क्या  क्या किया 

वही कोमल बदन सुन्दर ,है प्यारा  और मुलायम है
ये तकिया ,रेशमी प्यारा ,भला तुमसे कहाँ कम है
कोई भी पोज में रखलो ,काम ये रोज आता  है
न सजने और संवरने में , कई घंटे  लगाता है
न फरमाईश है गहनों की ,न होटल की ,घुमाने की
और ना इसकी आदत है  ,कोई नखरे  दिखाने की
बिना ही ना नुकर कर के ,ये बंध ,बाँहों में जाता है
रखो सर इस पे ,सो जाओ,मज़े से ये सुलाता  है
अगर तुझमे और तकिये में ,कोई च्वाइस मिला होता
तो जाहिर मैंने निश्चित में ही,तकिये को चुना होता
कही ये बात मैंने ,बीबीजी का दिल  जलाने को
तो अगली रात ,मुझको ना ,मिले तकिये सिरहाने को
दूसरे  दिन सवेरे ही ,सुधारी हमने ,निज गलती
कहा बीबी के आगे एक तकिये की है क्या हस्ती
नहीं इसमें  में,कोई हरकत ,अदा ना कोई सिसकारी
न वो बंधन है कि  जिसमे बंध ,लगे बीबी हमें प्यारी
बड़ा निर्जीव सा निरीह है ये रुई  का पुतला
शुरू में नर्म,दब दब कर ,मगर हो जाता है ये पतला
मगर पत्नी ,शुरू में पतली ,फिर वो फूल जाती है
ये काम आता है सोने में,वो दिन भर काम आती है
जगह बीबी की कैसे भी ,ये तकिया  ले नहीं सकता
जो सुख बीबी से मिलता है ,वो तकिया दे नहीं सकता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

 
 


फिफ्टी -फिफ्टी

            फिफ्टी -फिफ्टी

हमारे हुस्न की तारीफ़ करते ,फिर सताते है
और फिर कहते है जालिम हमें ,तोहमत लगाते है
बना रख्खा है फिफ्टी फिफ्टी बिस्किट की तरह हमको,
कभी नामकीन कहते है ,कभी मीठा  बताते    है

घोटू 

Tuesday, August 20, 2013

प्रार्थना


              प्रार्थना
हे प्रभु!मुझे रहने के लिए ,
बस इतनी जगह चाहिए ,
कि हाथ पैर  फैला सकूं
मुझे सोने के लिए,
बस इतनी जगह चाहिए ,
कि करवट बदल सकूं
इतनी खुली जगह हो ,
कि जब तक जियूं ,
खुल कर सांस ले सकूं  
इतनी कमाई हो ,
कि दो वक़्त दाल रोटी खा सकूं
इतना समय दो ,
कि तेरे गुण  गा सकूं
मेरी आपसे बस इतनी सी ही विनती है
क्योंकि मुझे मालूम है ,
राख की एक ढेरी  बन,
गंगा की लहरों में विलीन होना ही,
मेरी नियती है

मदन मोहन बहेती'घोटू' 

बातें

         बातें

तुमने इधर की बात की
तुमने उधर की बात की
कुछ अपने घर की बात की
कुछ उनके घर की बात की
लेकर मोहल्ले गली से ,
सारे शहर की बात की
कुछ आसमां की बात की ,
कुछ समंदर  की बात की
कुछ हसीनो के लुभाने
वाले हुनर की बात की
कुछ रहगुजर की बात की
कुछ हमसफ़र की बात की
गम को छुपाने तुमने सारी ,
दुनिया भर की बात की
मगर  तुमने कभी  ना ,
दुखते जिगर की बात की

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जगाया न होता

           जगाया न होता

हमें नींद से जो जगाया न होता
हिला  इस तरह जो उठाया न होता
बड़ी मुद्दतों में जो आया था हमको ,
वो सपना हमारा ,भगाया न  होता
और फिर ये कह के,कि डर लग रहा है,
हमें अपने सीने लगाया न होता
दिखा करके अपनी मोहब्बत के जलवे ,
मेरी हसरतों को ,जगाया न होता
लगा कर अगन ना यूं अपने बदन से ,
लबों से वो अमृत ,पिलाया न होता
तो फिर हमसुहबत हुए हम न होते ,
मज़ा वो मोहब्बत का आया न होता
बड़ी देर तक मै  ,यूं सोया न रहता ,
थकावट में एक दिन ,यूं जाया न होता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

सावन की बूँदा बांदी में

  सावन की बूँदा  बांदी  में

इस सावन की ,मन भावन की,प्यारी सी बूंदाबांदी में
मेह न मदिरा बरस रही है ,प्यारे मौसम बरसाती में बी
जल की बूँदें ,कुंतल से बह, गाल गुलाबी पर  ढलकेगी
कोमल ,मतवाले कपोल पर ,मादक सी मदिरा छलकेगी
प्यासे होठों से पी मधुरस ,अपनी प्यास बुझायेंगे  हम
भीग फुहारों में तेरे संग ,भीग प्रेमरस  जायेंगे हम
तेरे वसन ,भीग जब तेरे ,चन्दन से तन को चूमेंगे
देख नज़र से ,तेरा कंचन,हम भी ,पागल हो झूमेंगे
जाने क्या क्या,आस लगा कर ,रख्खी है  मन उन्मादी ने
इस सावन की ,मन भावन की,प्यारी सी बूंदाबांदी में

मदनमोहन बाहेती'घोटू' 

वक़्त हम कैसे काटे

      वक़्त हम कैसे काटे

पढो अखबार का हर पेज ,तुम नज़रें गढा  कर के ,
पज़ल और वर्ग पहेली को ,भरो,आनंद   आयेगा
ले रिमोट टी वी का ,बदलते तुम रहो चेनल ,
कोई न कोई तो प्रोग्राम,पसंद का मिल ही  जाएगा
कभी चाय,कभी काफी ,कभी  लस्सी या ठंडाई ,
पकोड़े साथ में हो तो ,मज़ा फिर दूना  आयेगा
भले बैठे निठल्ले हो ,चलाते पर रहो मुंह को ,
वक़्त आराम से आराम करते ,कट ही  जाएगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

किसी का फोन आ जाये

            किसी का फोन आ जाये

मचलती कामनाये हो ,किसी का फोन आ जाए
उबलती भावनाएं हो,  किसी का फोन आ जाए
उफन के दूध बर्तन से ,निकल कर गिरनेवाला हो,
बहुत हम हडबडाये हो,किसी का फोन आ जाए
कभी जब सोने को होते ,आँख लगने ही वाली हो ,
और घंटी घनघना जाए,किसी का फोन आ जाए
खबर अच्छी, बुरी हो या कि वो फिर रांग नंबर  हो,
बहुत गुस्सा हमें  आये ,किसी का फोन आ जाए
कलम ले हाथ में हमने ,लिखा हो मुखड़ा कविता का,
बोल बन भी न पाए हो, किसी का  फोन आ जाए
आज की जिंदगानी में ,फोन है इस कदर छाया ,
कोई आये न आये पर ,किसी का फोन आ जाए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, August 19, 2013

घन बरसे

               घन बरसे

घन बरसे पर मन ना हरषा
पिया मिलन को रह रह तरसा
घिर घिर बादल रहे घुमड़ते ,
पर मन था सूने  अम्बर सा
    भीगे वृक्ष ,लता सब भीगी
    होकर तृप्त ,धरा सब भीगी
    लेकिन अविरल रही बरसती ,
     मेरी आँखे ,भीगी,भीगी
भीगी मेरी चूनर सारी ,
नीर नयन से इतना बरसा
घन बरसे पर मन ना हरषा
        सावन आया ,बादल आये
        वादा किया ,पिया ना आये
        जितना ज्यादा बरसा पानी,
        उतने  ज्यादा वो याद  आये
बादल गरजे ,बिजली कडकी ,
मन में लगा रहा एक  डर सा
घन बरसे पर मन ना  हरषा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

बुढापे में बहुत सुख दे रही ........

   बुढापे में बहुत सुख दे रही ........


    जवानी में भी जितना सुख नहीं  ,जिसने दिया मुझको,
     बुढापे में बहुत सुख दे रही ,बुढ़िया  ,मुझे  मेरी
 भले मन में उमंगें थी,और तन  में भी ताकत थी ,
मगर खाने कमाने में,बहुत हम व्यस्त रहते  थे
और पत्नी भी रहती व्यस्त ,घर के काम काजों में ,
रात होती थी तब तक ,दोनों ही हम पस्त रहते थे
         इधर मै थक के सो जाता ,उधर खर्राटे  भरती वो ,
         कभी ही चरमरा ,सुख देती थी,खटिया  मुझे मेरी
         जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको ,
          बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही बुढ़िया  मुझे मेरी
बहुत थोड़ी सी इनकम थी,बड़ा परिवार पलता था,
बड़ी ही मुश्किलों से,बच्चों को ,हमने पढ़ाया था
काट कर पेट अपना ,ध्यान रख कर उनकी सुविधा का,
बड़े होकर ,कमाए खूब ,इस काबिल बनाया  था
            तरक्की खूब कर बेटा हमारा ख्याल रखता है,
            बड़ी चिन्ता  से करती याद है,बिटिया मुझे मेरी
             जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
            बुढापे में में बहुत सुख दे रही ,बुढिया ,मुझे मेरी
आजकल मै हूँ,मेरी बीबी है ,फुर्सत में हम दोनों,
इस तरह हो गए है एक कि दोनों  अकेले  है
धूमते फिरते है मस्ती में ,रहते प्यार में डूबे ,
उमर आराम की ,चिंता न कुछ है ना झमेले है
                कभी तलती पकोड़ी है ,कभी फिर खीर और पूरी ,
                खिलाती ,प्रिय मेरा खाना ,बहुत बढ़िया ,मुझे डेली
                 जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
                 बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही , बुढ़िया ,मुझे मेरी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, August 18, 2013

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा

कृष्ण ,कभी धरती पर आना 
और कहीं जाओ ना जाओ,पर गोवर्धन निश्चित जाना
वो गोवर्धन ,जिस पर्वत पर ,गोकुल का पशुधन चरता था
दूध ,दही से और मख्खन से ,ब्रज का हर एक घर भरता था
छुडा इंद्र की पूजा तुमने ,जिसकी  पूजा  करवाई थी
होकर कुपित इंद्र ने जिससे ,ब्रज पर आफत बरसाई थी
वो गोवर्धन ,निज उंगली पर,जिसको उठा लिया था तुमने
ब्रज वासी को जिसके नीचे ,बैठा ,बचा लिया था तुमने
देखोगे तुम ,इस युग में भी ,पूजा जाता है गोवर्धन
करते  है उसकी परिक्रमा,श्रद्धानत हो,कई भक्त जन
दूध सैकड़ों मन ,उसके मुख पर है लोग चढ़ाया करते
इतना गोरस ,व्यर्थ नालियों में है रोज बहाया  करते
देखोगे तुम,ये सब,शायद ,तुमको भी  अच्छा न लगेगा
इतना दूध,बहाना ऐसे ,गोधन का अपमान लगेगा
थोडा दूध,प्रतीक रूप में ,गोवर्धन पर चढ़ सकता है
बाकी दूध ,कुपोषित बच्चो का भी पोषण कर सकता है
अगर प्रेरणा ,तुम दे दोगे ,यह रिवाज़ सुधर जाएगा
मनो दूध,भूखे गरीब सब ,बालवृन्द को मिल जाएगा
पण्डे और पुजारी जितने भी है ,उनको तुम समझना
कृष्ण कभी धरती पर आना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लोहा और प्लास्टिक

       लोहा और प्लास्टिक

बड़ा है सूरमा लोहा ,लडाई में लड़ा करता
वो बंदूकों में ,तोपों में और टेंकों में लगा करता
कभी तलवार बनता है,कभी वो ढाल  बनता है
हमेशा जंग में वो जंगी सा हथियार बनता है
कभी लोहे के गोले  तोप से जब है दागने पड़ते
तो दुश्मन को भी लोहे के चने है चाबने  पड़ते
कौन लोहे से ले लोहा ,सामने सकता आ टिक है
मिला उत्तर हमें झट से कि वो केवल प्लास्टिक है
टेंक इससे भी बनते है ,मगर भर रखते पानी है
खेत में बन के पाइप ,सींचता,करता किसानी है
घरों में लोहे के पाइप ,तगारी बाल्टी और टब
कभी लोहे के बनते थे,प्लास्टिक से बने अब सब
हरेक रंग में ये रंग जाता ,गरम होता है गल जाता
इसे जिस रूप में ढालो ,ये उस सांचे में ढल जाता
कलम से ले के कंप्यूटर ,सभी में आपके संग है
इसे है जंग से नफरत ,न लग पाता इसे जंग है
प्लास्टिक शांति का प्रेमी ,सख्त है पर नरम दिल है
बजन में हल्का ,बोझा पर,बड़ा सहने के काबिल है
इसी की कुर्सियों में बैठना ,प्लेटों में खाना  है
दोस्तों आजकल तो सिर्फ प्लास्टिक का ज़माना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

हाट -बाज़ार

   हाट -बाज़ार

बहुत से मॉल में घूमे ,कई बाज़ार भी भटके
मगर हाटों की शौपिंग का ,मज़ा ही होता है हटके
बहुत सी सब्जियां और फल,और होता माल सब ताज़ा ,
धना मिर्ची  रुंगावन में,और होते दाम भी घटके
वो हल्ला ,रौनकें और शोरगुल भी अच्छा लगता है,
न मुश्किल कोई लेने में,पसंद की सब्जियां,छंट  के 
बड़ी मिलती तसल्ली है ,यहाँ पर बार्गेन करके ,
वो डंडी मारना मालन का और उसकी अदा ,झटके
जब होने रात लगती है और छटती भीड़ है सारी ,
तो औने पोने रह जाते ,सभी के दाम है घट के
सभी चीजे ,बड़ी सस्ती ,यहाँ पर एक संग मिलती ,
जो जी चाहे,खरीदो तुम,बिना मुश्किल और झंझट के

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आजकल थकने लगे है

          आजकल थकने लगे है

आजकल थकने लगे है
लगता है पकने लगे है
जरा सा भी चल लिए तो,
दुखने अब टखने लगे है
कृष्णपक्ष के चाँद जैसे ,
दिनोदिन   घटने लगे है
विचारों में खोये गुमसुम,
छतों को तकने लगे है 
नींद में भी जाने क्या क्या,
आजकल बकने लगे है
खोखली सी हंसी हंस कर,
गमो को ढकने लगे है
स्वाद अब तो बुढापे का ,
रोज ही चखने  लगे है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तुम वैसी की वैसी ही हो

     तुम वैसी की वैसी ही हो

जब तुम सोलह सत्रह की थी,कनक छड़ी सी सुन्दर थी ,
हुई बीस पच्चीस बरस की ,बदन तुम्हारा गदराया
फिर मेरे घर की बगिया में ,फूल खिलाये ,दो प्यारे,
और ममता की देवी बन कर ,सब घर भर को महकाया
रामी गृहस्थी में फिर ऐसी ,बन कर के अम्मा,ताई
तुम्हारे कन्धों पर आई,घर भर की जिम्मेदारी
रखती सबका ख्याल बराबर ,और रहती थी व्यस्त सदा ,
लेकिन पस्त थकीहारी भी,लगती थी मुझको प्यारी
फिर बच्चों की शादी कर के ,सास बनी और इठलाई,
पर मेरे प्रति,प्यार तुम्हारा ,वो का वोही रहा कायम
वानप्रस्थ की उमर हुई पर हम अब भी वैसे ही हैं,
इस वन में मै ,खड़ा वृक्ष सा ,और लता सी लिपटी  तुम
तन पर भले बुढ़ापा छाया ,मन में भरी जवानी है ,
वैसी ही मुस्कान तुम्हारी,वो ही लजाना ,शरमाना
पहले से भी ज्यादा अब तो ,ख्याल मेरा रखती हो तुम,
मै भी  तो होता जाता हूँ,दिन दिन दूना ,दीवाना
वो ही प्यारी ,मीठी बातें,सेवा और समर्पण है ,
वो ही प्यार की सुन्दर मूरत ,अब भी पहले जैसी हो
वो ही प्रीत भरी आँखों में ,और वही दीवानापन ,
पेंसठ की हो या सत्तर की ,तुम वैसी की वैसी  हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

गुलाब जामुन

           गुलाब जामुन

गुलाबी गाल है तेरे ,जामुनी होठों की रंगत ,
बड़ी ही चासनी ,मिठास है ,रुखसार तेरे  पर
मुझे गुलाबजामुन सा ,तुम्हारा रूप लगता है ,
मेरे होठो से आ लगजा,इनायत करदे तू मुझपर
घोटू

सीडियां

            सीडियां

बहुत मुश्किल मंजिलों पर पहुंचना ,
चढ़ना पड़ती है हमेशा  सीढियां
सीढियां चढ़ना नहीं आसान है ,
थका देती है बहुत ये सीढियां
मन में जज्बा और रख कर हौसला ,
लगन से चढ़ता है जो भी सीढियां
मुश्किलें आई है पर मंजिल मिली ,
चढी उसने  तरक्की की सीढियां
है गवाह इतिहास भी इस बात का ,
जाती है तर  ,कई उसकी पीढियां

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मज़ा बचपन का बुढापे में .......

  मज़ा बचपन का बुढापे में .......

बुढापे में भी बचपन को ,बुला हम क्यों नहीं सकते
जरा खुल कर ,हंसी ठट्ठा ,लगा हम क्यों नहीं सकते
बरसती फुहारों में भीग करके ,नाच कर 'घोटू'
मज़ा बारिश के मौसम का ,उठा हम क्यों नहीं सकते
बना कर नाव कागज़ की,सड़क की  बहती नाली में,
तैरा कर ,भाग हम पीछे ,भला जा क्यों नहीं सकते
गरम से तपते मौसम में ,खड़े होकर के ठेले पर ,
बर्फ के गोले ,आइसक्रीम ,हम खा फिर क्यों नहीं सकते
मिला कर हाथ अपने नन्हे ,प्यारे पोते पोती से ,
हम उनके संग ,बच्चे फिर ,बन जाया क्यों नहीं सकते
रखा क्यों ओढ़ कर हमने ,लबादा ये बुजुर्गी का ,
वो बचपन के हसीं लम्हे ,हम लोटा क्यों नहीं सकते
जवानी के मज़े इस उम्र में ,तो लेना है मुश्किल,
मज़े बचपन के दोबारा ,उठा फिर क्यों नहीं सकते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ये दिल मांगे मोर

  ये दिल मांगे मोर

लुभाने मोरनी सी महबूबा ,हम मोर बन नाचे ,
मगर वो मोरनी बोली कि ये दिल मोर मांगे है
दिया जब हार सोने का था जिसमे मोर का लोकेट,
लिपट बोली ये दिल अब तो,बहुत कुछ  मोर मांगे है
घोटू

स्वर्ग का माहोल बिगड़ा

          स्वर्ग का माहोल बिगड़ा

बड़े ही घाघ ,कद्दावर से नेता ,मंत्री बनकर
                            बड़े स्केम  करके ,ढेर सा पैसा कमाते है
कटाने को टिकिट वो स्वर्ग का ,सारे जतन करते,
                             दान और पुण्य करते है,तीर्थ और धाम जाते है
सुना है ,स्वर्ग में भी भीड़ इनकी जा रही बढ़ती ,
                               वहां पर इनके जाने से  बड़ा माहोल बिगड़ा है
परेशां अप्सराएं है ,नहीं कंट्रोल है इन पर ,
                               पड़े पीछे सभी रहते,रोज ही होता  झगड़ा  है
पुराने  अनुभवी नेता  वहां जब पहुँच जाते है ,
                                  तो पोलिटिक्स करते है ,वो सब कुर्सी  के पाने की
इन्द्र भी आजकल है दुखी रहता इनकी हरकत से ,
                                  कोशिशें करते रहते है ये इन्द्रासन    हिलाने की
स्वर्ग में पहुंचे नेताजी ,वहां  यमराज ने उनको ,
                                  सुनाने कर्म का लेखा , उठाया जब बही ही  था
झपट कर नेताजी ने बही ली और फाड़ दी झट से,
                                    और बोले जो किया मैंने ,वो सब का सब सही ही था
बहुत सा धन ,धरम और दान में मैंने लुटा कर के,
                                     आरक्षित वहां से  सीट मैंने  स्वर्ग की की  है
 कहाँ पर सोमरस है,कौनसा प्रासाद है मेरा ,
                                      अप्सरा कौनसी अलाट  मुझको ,आपने की है
स्वर्ग के बाकी वाशिंदे भी अब ,रहते परेशां है,
                                        वहां पर भीड़ बढ़ती जा रही है बाहुबलियों की
परेशां लगी रहने सभी हूरें ,उनकी हरकत से,
                                    बिगड़ने लग गयी है अब फिजा ,जन्नत की गलियों की         
कि अब तो स्वर्ग में भी नर्क सा माहोल दिखता है ,
                                      ऐसे स्वर्ग से तो धरती पर ही अच्छा  लगता था
वहां पर कम से कम बीबी थी,घर था,अपने बच्चे थे ,
                                       थे टी वी ,और सिनेमा ,मस्ती से सब वक़्त कटता था

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, August 16, 2013

चना -बिना

         चना -बिना

जरा सोचो ,खुदा  ने गर,उगाया ना चना  होता
हमारा फिर तो जीवन ये ,एक फीकी दास्ताँ होता
पकोड़े ,प्याज या आलू के ,खाने को नहीं मिलते ,
तो फिर बारिश के मौसम का ,मज़ा ही बोलो क्या होता
न मोतीचूर के लड्डू ,न बूंदी ,चक्की बेसन की ,
ना तली दाल ,भुजिया ,सेव, खाना बे मज़ा   होता
न बनते ढोकले ,ना गाठिये ,ना फाफड़े कोई ,
बिना इनके ,भला गुजरातियों का खाना क्या होता
पकोड़े ब्रेड के या फिर,बडा और पाँव ना बनता ,
न चीले बेसनी ,फीका बड़ा ही नाश्ता  होता
न बनती फिर कड़ी कोई,न बेसन गट्टे बन पाते ,
न पूरण पोलियों का जायका ,हमको मिला होता
भुने हम भूंगडे खाकर,मिटा निज भूख लेते है ,
हमें ना गर्मियों में स्वाद  ,सत्तू का मिला होता
न बेसन और हल्दी में .मिला कर के मलाई को
बना उबटन हसीनो ने ,बदन अपना मला होता
चने के झाड पर हमने ,चढ़ा डाला चने को है ,
हाल फिर घर की मुर्गी का ,नहीं फिर दाल सा होता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

जीवन यात्रा

        जीवन यात्रा

ये जीवन तो क्षण भंगुर है ,एक बुलबुला है पानी का
टेड़ा मेडा ,ऊबड़ खाबड़ ,ये रास्ता है ,जिंदगानी  का
पग पग पर आती बाधाएं,बिखरे पड़े राह में  कांटे
हरियाली है ,धूप कहीं है ,कहीं मरुधर  के सन्नाटे
मंजिल का कुछ पता नहीं है ,पथिक भटकता ,आगे बढ़ता
सफ़र कहाँ पर,कब रुक जाए ,कभी किसी को पता न चलता 
बारिश कभी,कभी ओले है ,कभी शीत की चुभती ठिठुरन
कभी थपेड़े ,गर्म हवा के ,सूर्य  तपिश से जल जाता तन
एक तो जीवन पथ ही दुर्गम,उस पर मौसम तुम्हे सताता
बदला करती परिस्तिथियाँ ,और सुख दुःख है आता ,जाता
बिना डिगे जो चलता रहता ,बढ़ता रहता धीरज धर  कर
 निश्चित उसे सफलता मिलती ,और पहुँच जाता मंजिल पर
मिले हमसफ़र ,साथ निभाता ,होता अंत परेशानी का
ये जीवन तो क्षण भंगुर है ,एक बुलबुला है  पानी का

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



आशा-निराशा

    आशा-निराशा

भरी बारिश में उनके घर
गए हम आस ये ले कर
मज़ा बारिश का  आयेगा
                    पकोड़े  जा के खायेंगे
मगर जब हम वहां  पहुंचे
वहां थे  चल रहे  रोज़े
नहीं सोचा था ये दिन भर ,
                      कि  हम  कुछ  खा न पायेंगे
आदमी चाहता है कुछ
मगर होता है उल्टा कुछ
कि किस्मत की पहेली ये,
                      कभी सुलझा न पायेंगे
चबा सकते थे जब खाना
नहीं था पास में खाना
मिला खाना गिरे सब दांत ,
                         अब कैसे  चबायेंगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चुनाव का अधिकार

          चुनाव का अधिकार

बचपन से ,जब से मुझ में ,
थोड़ी समझ और होंश आया है
मैंने अपने आप को ,
चुनाव के चक्कर में ही पाया है
सबसे पहले ,मेरे दाखिले के लिए ,
नर्सरी स्कूल का चुनाव किया गया
 इस दाखिले में ,मेरा कुछ भी दखल नहीं था ,
क्योंकि स्कूल का चुनाव पिताजी ने था किया
पर धीरे धीरे ,जब मै बड़ा होने लगा ,
मेरी चुनने की प्रवृत्ति रंग लाने लगी
खाने पीने में पसंद की चीज चुनना,
अच्छे बुरे दोस्त चुनना ,
पहनने के वस्त्र चुनना ,
इन सभी बातों में मेरे चुनाव को,
तबज्जो दी जाने लगी
और बड़ा होने पर इस बार ,
कौनसे कोलेज में जाऊं ,
कौनसा प्रोफेशन अपनाऊ
किसे अपनी गर्ल फ्रेंड बनाऊ
मेरे हाथ में आ गया था
ये सब चुनाव करने का अधिकार
इम्तिहान में पास होने पर ,
कई जगह अप्लाय किया ,
कई इंटरव्यूह  दिए
और चुनाव प्रक्रिया झेलनी पडी
तब कहीं नसीब हुई ,एक अच्छी नौकरी
फिर चला जीवनसाथी के चुनाव का चक्कर
लड़कियां देखी दर्जन भर
तब कहीं कोई पसंद आई
जिसके साथ मैंने शादी रचाई
जैसे जैसे बसता गया मेरा घर संसार
वैसे वैसे मै खोता गया ,अपना चुनाव का अधिकार
क्योंकि अब मेरी कम,मेरी बीबी की ज्यादा चलती है
अब मेरे लिए हर चीज मेरी बीबी चुनती है
आजकल चुनाव के मामले में ,ये बन्दा बेकार है
क्योकि हर चीज चुनने का पत्नीजी को अधिकार है
अब तो बस ,जब पांच साल में ,आम चुनाव आता है
देश का नेता चुनने में,ये बंदा  हाथ बटाता है
ये चुनाव का चक्कर भी अजीब है  होता
बच्चे को माँ बाप चुनने का हक़ तो नहीं होता
पर जन्म के बाद और शादी के पहले ,
हर चुनाव में उसकी चलती है
पर शादी के बाद ,चुनाव के मामले में,
उसकी दाल नहीं गलती है
क्योंकि उसको रोज रोज की लड़ाई
या घर की शांति  के बीच,
एक चीज का चुनाव करना पड़ता अक्सर  है
और रोज की लड़ाई के बदले ,बीबी की बात मान,
घर की शांति चुनना ही बेहतर है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लुटियन की दिल्ली

  लुटियन की दिल्ली

ये दिल्ली तो है लुटियन की ,जी चाहे लूट लो उतना ,
यहाँ पर तो लुटेरों की ,बहुत ही भीड़ रहती है
ये तो एक डाइनिंग टेबल है ,जो जी में आये ,वो खाओ ,
परसने ,खानेवाले चमचों की भी भीड़ रहती है
ये पार्लियामेंट की बिल्डिंग ,बनायी गोल उनने है,
इसलिए गोलमालों की ,यहाँ भरमार रहती है ,
ये  दिल्ली है,ओपोजिट पार्टियाँ भी ,दिल मिला कर के,
यहाँ पर सत्ता करने को ,सदा तैयार  रहती है
घोटू  

Thursday, August 15, 2013

झपकी

         झपकी
सुबह उठे जब आँख खुली तो ,आलस हम पर मंडराया ,
थोड़ी देर और सो ले हम,हमने  एक झपकी ले  ली
ऑफिस में जब लंच ब्रेक था ,खाना खाया ,सुस्ताये ,
कुर्सी पर बैठे बैठे ही  ,हमने  एक  झपकी ले ली
शाम हुई,जब घर जाने को ,हम गाडी में जा बैठे,
ट्राफिक जाम मिला रस्ते में,हमने एक झपकी ले ली
टी वी पर खबरे सुनते थे ,रोज रोज की घिसीपिटी ,
लंबा एक ब्रेक आया और हमने एक झपकी  ले ली
पत्नी जी थी व्यस्त काम में ,हम फुर्सत में लेटे थे ,
तो बस उनके इन्तजार में ,हमने एक झपकी ले ली
देख हमें भरते खर्राटे ,उनने हमको जगा दिया ,
हलकी सी करवट बदली और हमने एक झपकी ले ली
झपकी छोटी बहन नींद ,सभी कहीं आ जाती है ,
जब भी चाहा उससे मिलना ,हमने एक झपकी ले ली
झपकी की झप्पी लेने में ,बड़ा मज़ा है आ जाता ,
नयी ताजगी मिलती है जब ,हमने एक झपकी ले ली

मस्दन मोहन बाहेती'घोटू'


नसीहत

                 
                  नसीहत
भले बुद्धू हो ,नालायक ,पर बड़े बाप का बेटा ,
समझदारी इसी में है,पटा कर के ,रखा जाये
भले ही सिक्का खोटा हो ,बचा कर चाहिए रखना,
पता ना कब पड़े जरुरत और कब वो काम आ जाये
न मालूम कब ,तुम्हारा दोस्त ,ऊंचे पद पे जा बैठे ,
कभी बचपन का याराना ,बड़ा ही काम आता है
खिलाये कृष्ण को दो मुट्ठी ,थे चावल जिस सुदामा ने,
सुना है ,आजकल वो ,चार राईस मिल चलाता  है
घोटू

नसीब अपना अपना

    
     नसीब  अपना  अपना
समंदर  के  किनारे ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धुप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद पल लहरें,भीगा कर भाग  जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर तड़फडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर ,दिया ये रेत में उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन  कन्याये
तपाने धूप मे,अपना बदन  जब है यहाँ  आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगों को
भला ऐसे में,मै भी रोक ना पाती ,उमंगों को
हसीनो का वो मांसल ,गुदगुदा तन ,पास आता है
वो सुख अद्भुत ,निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही  मिलता ,मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

शिकायत

         
शिकायत उनने की ये ,जवानी मे घाँस ना डाली ,
बुढ़ापे मे ,हमे क्यों इस तरह ,इतना सताते  है 
कहा हमने कि ताज़े  फलों का है शौक कम हमको,
हमारी तो ये  आदत ,हम तो सूखा मेवा  खाते  है 
घोटू 

शिकवा

      शिकवा

गए बारिश में उनके घर ,ये सोचा भीगेगे संग संग ,
मगर जाते ही पकड़ा दी ,उन्होंने  छतरियां  हमको
सुनाने हाले दिल अपना ,लिखी थी प्यार से चिट्ठी ,
बता दी ढेर सारी ,व्याकरण की  गलतियां   हमको
हमारे तो मुकद्दर में ,लिखा है एसा उलटा कुछ ,
अकेले  मिलने पहुंचे ,उनकी  दादी  सामने आई ,
कहा बेटा ,किया अच्छा ,जो आये ,दर्द है सर में ,
बिठा सर अपना दबवाने ,लगा उनने  दिया   हमको

घोटू

Wednesday, August 7, 2013

तुम्हारा प्यार सबकुछ है

             तुम्हारा प्यार सबकुछ है
             
सताने में मेरे दिल को,
अगर मिलता मज़ा तुमको
तुम्हारी इस खुशी खातिर ,
               हमें मंजूर  सब कुछ  है
तुम्हारी चाह का मारा
हमारा दिल है बेचारा
संभालो या इसे कुचलो ,           
               हमें  मंजूर सबकुछ  है
जो जी चाहे तो अपनाओ
जो जी चाहे तो ठुकराओ
तुम्हारे मन को जो भाये ,
                 हमें  मंजूर  सबकुछ है 
जो तुम नज़दीक आती हो
अदा   से मुस्कराती हो ,
हमारे  दिल की धड़कन में,
                  हमेशा  होता कुछ कुछ है
न यूं तडफा के मारो तुम
इसे अपना बना लो  तुम
हमारा दिल तो पागल है ,
                   हमें मंजूर सबकुछ   है
बड़ा नायाब दुर्लभ सा
खजाना तेरी उल्फत का ,
हमारी जिंदगानी में,
                    तुम्हारा  प्यार सबकुछ है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'


मुझको दिया बिगाड़ आपने

           मुझको दिया बिगाड़ आपने
          
    मुझ पर इतनी प्रीत लुटा कर,सचमुच किया निहाल आपने
         मै पहले से कुछ बिगड़ा था,थोडा दिया बिगाड़     आपने
पहले कम से कम अपने सब ,काम किया करता था मै खुद
अस्त व्यस्त से जीवन में भी,रखनी पड़ती थी खुद की सुध
अब तो मेरे बिन बोले ही ,काम सभी हो कर देती तुम
टूटे बटन टांक देती  हो ,चाय     नाश्ता  धर देती तुम 
मेरी हर सुख और सुविधा का ,पूरा ध्यान तुम्हे रहता है
मुझ को कब किसकी जरुरत है,पूरा भान तुम्हे रहता है
     मुझे आलसी बना दिया है ,रख कर इतना ख्याल आपने 
      मै पहले से कुछ बिगड़ा था,   थोडा दिया बिगाड़  आपने 
भँवरे सा भटका करता था ,कलियों पीछे ,हर रस्ते में
लेकिन जब से तुम आई हो , मेरे दिल के गुलदस्ते में
तुम्हारे ही पीछे अब तो ,  मै बस  हूँ  मंडराया करता
लव यूं  लव यूं, का गुंजन ही ,अब मै दिन भर गाया करता
पागल अली ,कली  के चक्कर ,में इतना पाबन्द हो गया
इधर उधर ,होटल में खाना ,अब तो मेरा बंद हो गया
     ऐसी स्वाद ,प्यार से पुरसी ,घर की रोटी दाल आपने 
     मै पहले से कुछ बिगड़ा था ,थोड़ा  दिया बिगाड़  आपने
मुझ पर ज्यादा बोझ ना पड़े ,रखती हो ये ख्याल  हमेशा
इसीलिये ,मेरे बटुवे से ,    खाली कर        देती सब पैसा 
मेरे लिए ,शर्ट  या कपडे ,लेने जब जाती बाज़ार हो
खुद के लिये , सूट या साडी ,ले आती तुम तीन चार हो
पैसा ,मेल हाथ का ,कह तुम,हाथ हमेशा धोती रहती
धीरे धीरे , लगी सूखने, मेरे धन की  ,गंगा बहती
        मुझको ए टी एम ,समझ कर,किया है इस्तेमाल आपने 
         मे पहले से कुछ बिगड़ा था  ,थोड़ा  दिया बिगाड़ आपने
मै पहले ,अच्छा खासा था ,तुमने क्या से क्या कर डाला
ये न करो और वो न करो कह,पूरा मुझे बदल ही  डाला
और अब ढल तुम्हारे सांचे में जब बिलकुल बदल गया मै
तुम्ही शिकायत ,ये करती हो,     पहले जैसा  नहीं रहा मै 
चोरी ,उस पर सीनाजोरी , ये तो  वो ही मिसाल हो गयी
ऐसा रंगा ,रंग में अपने , कि मेरी पहचान    खो गयी
          सांप मरे ,लाठी ना टूटे ,ऐसा  किया  जुगाड़  आपने
          मै पहले से कुछ बिगड़ा था ,थोडा दिया बिगाड़ आपने
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Saturday, August 3, 2013

यादें- बचपन की

यादें- बचपन की 
कितनी बातें, कितनी यादें
उस हस्ते गाते बचपन की 
उस मिट्टी के कच्चे  घर की 
गोबर लिपे पुते आँगन की 
वो मिट्टी का कच्चा चूल्हा 
उसमें उपले और लकड़ियाँ 
फूंक फूकनी, आग जलाना 
और सेकना गरम रोटियाँ 
वो पीतल का बड़ा भरतीय 
चढ़ा दाल का जिसमें आदन
अटकन रख, कर टेड़ी थाली
रोटी दाल जीमतें थे हम
अंगारों पर सिकी रोटियाँ 
गरम, आकरी, सोंधी, फूली
टुकड़े चूर दाल में खाने 
की आदत अब तक न भूली 
त्योहारों पर पूवे पकोड़े
दहि बड़े और पूरी तलवा 
खीर कभी बेसन की चक्की 
और कभी आते का हलवा 
गिल्ली- डंडा, हूल गदागद
लट्टू घूमा खेलना कंचे 
बचपन के उन प्यारें खेलो 
की यादें न जाती मन से 
डंडा चौथ, बजाकर डंडे 
घर घर जा गुडधानी  खाना 
भूले से भी बिसर न पता 
बचपन का त्योहार सुहाना 
अमियाँ, इमली सभी तोड़ना
फेक लदे पेड़ों पर पत्थर 
घर में रखी मिठाई खाना 
चोरी- चोरी और छुपछुपकर 
बारिश में कागज की नावें 
तैरा, पीछे दौड़ लगाना
कभी हवा में पतंग उड़ाना 
बात बात पर होड लगाना 
रात पाँव दबवाती दादी 
और सुनाती हुमें कहानी 
विस्मित बच्चे, सुनते किस्से 
उड़ती परियाँ, राजा- रानी 
कुछ न कुछ प्रसाद मिलेगा
इसलिए जाते थे मंदिर 
शादी में जीमन का न्योता 
मिलता था, खिल जाते थे दिल 
पंगत में पत्तल पर खाना 
नुकती, सेव और गरम पूरियाँ 
कर मनुहार परोसी जाती 
कभी जलेबी कभी चक्कियाँ 
पतला पर स्वादिष्ट रायता
हम पीते थे दोने भर भर 
ऐसे शादी, त्योहारों में 
मन जाता था तृप्ति से भर 
पाँच सितारा होटल में अब 
शादी की होती है दावत 
एक प्लेट में इतनी चीज़ें 
गुडमुड़ खाना ,बड़ी मुसीबत 
भले हजारों का खर्चा कर,
मंहगा भोजन पुरसा जाता 
पर वो स्वाद नहीं आ पाता,
जो था उस पंगत मे आता 
रहते शहरों  के फ्लेटों में 
एसी, पंखें सभी यहाँ है 
मगर गाव के उस पीपल की 
मिलती ठंडी हवा कहाँ हैं 
वो प्यारी ताजी सी खुशबू 
यहाँ नहीं वो अपनेपन की 
कितनी बातें, कितनी यादें 
उस हस्ते गाते बचपन की 

मदन मोहन बहेती 'घोटू'