शरद पूनम का चाँद और बढ़ती उमर
इसने तो पिया था अमृत ,ये चाँद शरद का क्या जाने
होते है कितने दर्द भरे, बुझते दीयों के अफ़साने
कहते है शरद पूर्णिमा पर ,चन्दा अमृत बरसाता है
अपनी सम्पूर्ण कलाओं पर ,इठलाता वह मुस्काता है
ये रूप देख उसका मादक ,मन विचलित सा हो जाता है
यमुना तट के उस महारास की यादों में खो जाता है
उस मधुर चांदनी में शीतल,तन मन हो जाता उन्मादा
याद आते गोकुल,वृन्दावन ,आती है याद बहुत राधा
यूं ही हंस हंस कर रस बरसा,क्या जरूरत है तरसाने की
ये नहीं सोचता कान्हा की ,अब उमर न रास रचाने की
मदमाता मौसम उकसाता ,और चाह मिलन की जगती है
पर दम न रहा अब साँसों में ,ढंग से न बांसुरी बजती है
ये चाँद पहुँच के बाहर है,फिर भी करता है बहुत दुखी
जैसे हमको ललचाती है ,पर घास न डाले चन्द्रमुखी
वो यादें मस्त जवानी की ,लगती है मन को तड़फाने
इसने तो पिया था अमृत , ये चाँद गगन का क्या जाने
होते है कितने दर्द भरे ,बुझते दीयों के अफ़साने
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
इसने तो पिया था अमृत ,ये चाँद शरद का क्या जाने
होते है कितने दर्द भरे, बुझते दीयों के अफ़साने
कहते है शरद पूर्णिमा पर ,चन्दा अमृत बरसाता है
अपनी सम्पूर्ण कलाओं पर ,इठलाता वह मुस्काता है
ये रूप देख उसका मादक ,मन विचलित सा हो जाता है
यमुना तट के उस महारास की यादों में खो जाता है
उस मधुर चांदनी में शीतल,तन मन हो जाता उन्मादा
याद आते गोकुल,वृन्दावन ,आती है याद बहुत राधा
यूं ही हंस हंस कर रस बरसा,क्या जरूरत है तरसाने की
ये नहीं सोचता कान्हा की ,अब उमर न रास रचाने की
मदमाता मौसम उकसाता ,और चाह मिलन की जगती है
पर दम न रहा अब साँसों में ,ढंग से न बांसुरी बजती है
ये चाँद पहुँच के बाहर है,फिर भी करता है बहुत दुखी
जैसे हमको ललचाती है ,पर घास न डाले चन्द्रमुखी
वो यादें मस्त जवानी की ,लगती है मन को तड़फाने
इसने तो पिया था अमृत , ये चाँद गगन का क्या जाने
होते है कितने दर्द भरे ,बुझते दीयों के अफ़साने
मदन मोहन बाहेती'घोटू'