अनिवासी भारतीय
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पहाड़,जंगल और गावों को लांघते हुए,
अपने देश की माटी की खुशबू से महकती नदियाँ,
रत्नाकर की विशालता देख ,
उछलती कूदती ,ख़ुशी ख़ुशी,
समंदर में मिल तो जाती है
पर उन्हें जब,
अपने गाँव और देश की याद आती है,
तो उनकी आत्मा,
समंदर की लहरों की तरह,
बार बार उछल कर,
किनारे की माटी को,
छूने को छटपटाती है
पर जाने क्या विवशता है,
फिर से समुन्दर में विलीन हो जाती है
विदेशों में बसे,
अनिवासी भारतियों का मन भी,
कुछ इसी तरह लाचार है
जब की उन्हें भी,नदियों की तरह,
अपनी माटी से प्यार है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
(ब्राज़ील से यह रचना पोस्ट कर रहा हूँ-
यहाँ बसे कुछ भारतियों की भावनाये प्रस्तुत करने की
कोशिश है )
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पहाड़,जंगल और गावों को लांघते हुए,
अपने देश की माटी की खुशबू से महकती नदियाँ,
रत्नाकर की विशालता देख ,
उछलती कूदती ,ख़ुशी ख़ुशी,
समंदर में मिल तो जाती है
पर उन्हें जब,
अपने गाँव और देश की याद आती है,
तो उनकी आत्मा,
समंदर की लहरों की तरह,
बार बार उछल कर,
किनारे की माटी को,
छूने को छटपटाती है
पर जाने क्या विवशता है,
फिर से समुन्दर में विलीन हो जाती है
विदेशों में बसे,
अनिवासी भारतियों का मन भी,
कुछ इसी तरह लाचार है
जब की उन्हें भी,नदियों की तरह,
अपनी माटी से प्यार है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
(ब्राज़ील से यह रचना पोस्ट कर रहा हूँ-
यहाँ बसे कुछ भारतियों की भावनाये प्रस्तुत करने की
कोशिश है )
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