Sunday, May 29, 2011

गधे का अंतर्द्वंद

गधे का अंतर्द्वंद
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इस धूप भरी दोपहरी में,उस पीपल के तरु के नीचे
वो कौन तपस्वी खड़ा हुआ है मौन ,शांत,आँखें मीचे
लाल रेत पर,तीन पैर पर,खड़ा हुआ काया साधे
नयन निराले सुन्दर हैं,रह रह खुलते,आधे आधे
कितना बुजुर्ग है यह साधू,चांदी से बाल हुए सारे
शोभा उसकी बढ़ा रहे है,उसके कान बड़े प्यारे
देवदूत सा लगता है,उजला तन है,उजला मन है
लोभ,मोह से बचने को ,पैरों में पगहा बंधन है
कई कीट,कितने मच्छर,तुन तुन करते,बाधा डाले
पर ध्यान न उसका तोड़ सके,कितने प्रयत्न ही कर डाले
जनहित ही इसने जन्म लिया ,यह सेवाव्रती,धीर प्राणी
कितना परोपकारी है ये,कितना बलवान वीर प्राणी
कितने ही जुलम हुए उस पर,पर सहनशील ने सभी सहा
पर सहनशीलता ,सेवा पर ,लोगों ने उसको गधा कहा
वह सोच रहा है खड़ा खड़ा,है कैसी रीत जमाने की
सब को तो बस आज पड़ी है,अपना काम बनाने की
सब अपने में ही मस्त,दर्द औरों का कोई क्या जाने
है नहीं जोहरी कोई जो ,मुझसे हीरे को पहचाने
लिफ्ट न मुझको मिलती,कितनी लिफ्ट किया करता हूँ मै
लेबर की डिगनिटी में,विश्वास किया करता हूँ मै
लेकिन अपने श्रम की कीमत,मै क्या पाता हूँ बेचारा 
दो,चार,पांच,डंडो के संग,कुछ भूसा,कुछ सूखा चारा
 नाम बहुत है लेकिन कुछ भी,पूछ नहीं है लेबर की
इसीलिए तो कद्र नहीं,मुझसे श्रमशील जानवर की
मुझको अब तक जान न पायी,जनता कितनी बेसुध है
मै नेता हूँ,मुझमे नेतागिरी का हर गुण मौजूद है
मेरी आवाज बुलंद बहुत,जो जन जन तक है जा सकती
नयी क्रांति फूंक सकेगी,नया सवेरा ला सकती
सहनशील मै नेता सा,मेरे कितने आलोचक है
 खड़े कान है टोपी से ,जो नेतागिरी के सूचक है
मुझे पुराणों ने भी माना,बात पुरानी,युग त्रेता
लंका के राजा रावण का,भाई था मै खर नेता
राजनीती का  चतुर खिलाड़ी,देखे कई रंग मैंने
सेनापति बन युद्ध किया था,अरे राम के संग मैंने
मुझे याद है बुरी तरह से,मैंने उन्हें खदेड़ा था
बन्दर सब डर कर भागे जब चींपों का स्वर छेड़ा था
सारी दुनिया जान गयी थी,वीर बहुत हूँ सुन्दर मै
और डिफेन्स के लिए एक ही हूँ उपयुक्त मिनिस्टर मै
कलाकार हूँ,कविता करना भी तो मेरे गुण में है
कितनी प्रयोगवादी कविता,मेरी चींपों की धुन में है
बड़े से बड़ा कवि भी मेरे आगे घुटने टेक रहा
नहीं समझ में कविता आती ,तो कहता मै रेंक रहा
मै गायक हूँ,गीत सुना  कर,सबका मन बहलाता हूँ
मंत्रमुग्ध सब हो जाते जब अष्ठम स्वर में गाता हूँ
 और खिलाडी,मत पूंछो,मुझको बोक्सिंग का शौक लगा
  मेरी दुलत्तियों के आगे,कोई ना मुझसे जीत सका
 मेरी गदही का दूध बहुत,पोषक,सौन्दर्य प्रसाधक है
बजन और मोटापा कम ,करने में बड़ा सहायक है
मै क्या हूँ,कितना अच्छा,पूछो धोबी,कुम्हारों से
कितनी बड़ी मुसीबत मैंने दूर करी बेचारों से
वे बहुत दुखी थे बेचारे,मैंने उन पर उपकार किया
उनके दुःख दूर किये मैंने,बोझा ढोना स्वीकार किया
 मेरी देवी ने कद्र करी,सचमुच मै कितना पावन हूँ
जिनकी सब पूजा करते है,मै शीतला माँ का वाहन हूँ
मोरमुकुट से कान खड़े है,मै भी तो अवतारी हूँ
विष्णु चारभुज धारी है,मै किन्तु चार पग धारी हूँ
शंकर के सर पर एक चन्द्र,मेरे सर पर दो चाँद जड़े
वह एक आह ठंडी भर कर,धीरे से रेंका खड़े खड़े
वह सोच रहा था बेचारा,मेरी किस्मत भी रंग लाये
शांति और सेवा का नोबल प्राईज मुझको मिल जाये
इतने में गरम गरम लू का,एक हल्का सा झोंका आया
साज सजे ,सुर मिले सभी,चींपों कर गदहा चिल्लाया
 चींपों,चींपों,चींपों,चींपों,मै  जाग  गया दुनिया वालों
मै क्रांति मचा दूंगा जग में,अब भी संभलो,देखो,भलो
फिर किया दंडवत भगवन को,वो लगा लोटने ढेरी में
अंगों में रमी भभूति फिर,उस धूप भरी दोपहरी में

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

बँटी हुई माँ

बँटी हुई  माँ
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जिसने बांटा
प्यार बराबर सब बेटों में
आज बँट रही वो माँ अपने ही बेटों में
अब बूढी हो गयी अकेली है ,अशक्त है
भूख नहीं लगती,खाने से मन विरक्त है
दस बारह गोली दवाई की नित खाती है
मिनिट मिनिट में बात भूलती,बिसराती है
कमर झुक गयी ,होती है चलने में दिक्कत
मन ना लगता सुनने में अब कथा ,भागवत
दूर गाँव में खाली पड़ी,हवेली उसकी
बची नहीं पर कोई सखी,सहेली उसकी
ख्याल हमेशा जो रखती रहती हम सबका
पर कुछ करना,नहीं रहा अब उसके बस का
अब आश्रित है बेटों पर,कुछ ना कहती है
थोड़े थोड़े दिन  हर एक के घर रहती है
अब भी प्यार लुटाती है ,बेटी बेटों में
आज बँट रही वो माँ अपने ही बेटों में

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

 

भरा हुआ घर

भरा हुआ घर
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मेरे मन के स्मृतिपटल पर,
अक्सर छा जाया करता है ,
बचपन का परिवार हमारा
भरा पूरा घर बार हमारा
दादी थी ,माँ,बाबूजी थे,
और सात हम भाई बहन थे
इक दूजे संग पीते खाते
लड़ते ,भिड़ते,हँसते, गाते
इतने बच्चे,इतनी रौनक,
मेहमान भी आते ,जाते
जल्दी उठ कर सुबह, सवेरे
कम काज में माँ लगती थी
झाड़ू,पोंछा,कपडे ,बर्तन
सबके लिए पकाती भोजन
लकड़ी और कंडों से तब जलता था चूल्हा
वो चौके में बैठ पकाती  दाल,सब्जियां
और सब बच्चे ,लाइन लगा बैठ जाते थे
थाली के नीचे रख कर कंडे का टेका
दल और सब्जी पुरसी जाती थाली में,
एक एक कर रोटी बनती ,
और नंबर से हम खाते थे
माँ के हाथ बनी उस रोटी और सब्जी में
सचमुच स्वाद गजब आता था
और शाम को,यही सिलसिला चल जाता था
करती दिन भर काम रात तक,
 माँ होगी कितनी थक जाती
किन्तु हमें कर तृप्त ,तृप्ति जो ,माँ की आँखों में थी आती
मुझे याद है
माँ ,बाबूजी सोते थे अपने कमरे में
और रात को ,लगती बिस्तर की लाइन ओसारे में
या गर्मी में  छत के ऊपर
हम सब बच्चे,
सुनते थे दादी से किस्से
कभी खेलते अन्ताक्षरी थे
वो क्या दिन थे
इतने बच्चे,
पर सब अनुशासन में रहते थे
इक दूजे का होमवर्क  निपटा देते थे
बड़े भाई की सभी किताबें ,
काम आ जाती थी छोटों के
और बड़ों के छोटे कपडे,
खुश हो पहन लिया करते थे
साथ उम्र के बड़े हुए हम
शादी करके सब बहने ससुराल गयी और,
हम सब भाई व्यस्त हुए अपने धंधों में
इधर उधर जा तितर बितर परिवार हो गया
हम बच्चों ने,
तब सचमुच जीया था बचपन
ना था इतना कोम्पीटीशन,न ही टेंशन
और आज मै,व्यस्त जॉब में
पत्नी भी सर्विस करती है,बहुत व्यस्त है
बच्चे होमवर्क में उलझे,या टी वी में हुए मस्त है
भूख लगे तो ,डोमिनो से,
एक पीज़ा मंगवा लेते है
सिर्फ एक सन्डे के दिन मिलजुल खाते है
अब एकल परिवार हो गए ,
जीवन पध्दिती में आया है कितना अंतर
पर मैंने जीया,भोगा है ,भरा हुआ घर

मदन मोहन बहेती 'घोटू'





होती गर जो मोबाईल मै

होती गर जो मोबाईल मै
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मेरे प्रीतम ,होती गर जो मोबाईल मै
बस ,बस कर ही रह जाती,तुम्हारे दिल में
तुम्हारे प्यारे हाथों में सिमटी रहती
होठों  से और गालों से बस चिपकी रहती
होता जब भी मेरे मन में वाइब्रेशन
तो झट से अपने हाथों में ले लेते तुम
मै खुश  रहती इसी आस में
सोवोगे रख मुझे पास में
और जब मेरी घंटी बजती
मै तुम्हारे होठों लगती
तुम मुस्काते
घंटों मुझसे करते बातें
छूकर टच स्क्रीन ,मुझे जब टच तुम करते
मुख पर कितने भाव उमड़ते
'सेमसंग' की तरह सदा मै रहती संग में
'स्पाइस' की तरह चटपटी रहती मन में
नहीं दूसरा 'सिम' ,आने देती जीवन में
और मोबाईल होने पर भी,
साथ तुम्हारे हरदम टिकती
तुम्हारी महिला मित्रों के,
सारे एस एम एस  तुम्हारे
सबसे पहले मुझको मिलते,
मै उनको डिलीट कर देती बस एक पल में
मेरे प्रीतम ,होती गर जो मोबाईल मै

मदन मोहन बहेती 'घोटू'