ये मेरी कवितायेँ
जो मेरे अंतर को ,हिला हिला देती है
कभी मार देती है,कभी जिला देती है
कभी रुलाती मुझको और कभी सहलाती
जब मेरी पीडायें,कवितायेँ बन जाती
मेरे लब मौन और शांत रहा करते है
आँखों से आंसूं ना,शब्द बहा करते है
लेखनी दर्दों को,पहनाती जामा है
सिर्फ चंद लफ्जों में, पीर सब समाना है
उधड़ते रिश्तों को,भावों के धागे से
सुई ले तुरपतें है, पीछे या आगे से
पत्थर से उर पर है,जमी काई सी फिसलन
फिसल फिसल कर यादें,कवितायेँ जाती बन
कविता की हर पंक्ति ,कतरन है यादों की
कुछ टूटे सपनो की,कुछ झूंठे वादों की
जोड़ इसी कतरन को,बन जाता कम्बल है
एकाकी जीवन का, ये ही तो संबल है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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Tuesday, June 26, 2012
इतना ही काफी है
इतना ही काफी है
बच्चे ,अब बढे हो गये है
अपने पैरों पर खड़े हो गये है
ख़ुशी है ,कुछ बन गये है
गर्व से पर तन गये है
कभी कभी जब मिलते
लोकलाज या दिल से
चरण छुवा करते है
कमर झुका लेते है
ये भी क्या कुछ कम है
खुश हो जाते हम है
नम्रता कुछ बाकी है
इतना ही काफी है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बच्चे ,अब बढे हो गये है
अपने पैरों पर खड़े हो गये है
ख़ुशी है ,कुछ बन गये है
गर्व से पर तन गये है
कभी कभी जब मिलते
लोकलाज या दिल से
चरण छुवा करते है
कमर झुका लेते है
ये भी क्या कुछ कम है
खुश हो जाते हम है
नम्रता कुछ बाकी है
इतना ही काफी है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
नाम पर मत जाओ
नाम पर मत जाओ
सूर है सूरज में,सूर याने चक्षु हीन,
सबको पथ दिखलाता,जग मग कर के जगती
सूरज में रज भी है,रज याने धूलि कण,
जा न सके सूरज तक, बहुत दूर है धरती
इसीलिये कहता हूँ,नाम पर मत जाओ,
डंक बड़ा चुभता है,पर बजता है डंका
नाम भ्रमित करते है,माला के दाने का,
वजन एक माशा है,पर कहलाता मनका
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
सूर है सूरज में,सूर याने चक्षु हीन,
सबको पथ दिखलाता,जग मग कर के जगती
सूरज में रज भी है,रज याने धूलि कण,
जा न सके सूरज तक, बहुत दूर है धरती
इसीलिये कहता हूँ,नाम पर मत जाओ,
डंक बड़ा चुभता है,पर बजता है डंका
नाम भ्रमित करते है,माला के दाने का,
वजन एक माशा है,पर कहलाता मनका
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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