Friday, July 16, 2021

पुरानी यादें 

याद आते हैं वह दिन जो तुम्हारे साथ बीते थे 
सवेरे गैलरी में बैठ कर ,संग चाय पीते थे 

बड़ी मन में तसल्ली थी कोई जल्दबाजी थी 
बड़ा उन्मुक्त जीवन था ,खुशी थी,खुशमिजाजी थी
न थी ज्यादा तमन्नायें,और सपने में थोड़े थे 
शाम की चाय के संग मिलते बोनस में पकौड़े थे 
न चिंता ना परेशानी ,बड़ी मस्ती से जीते थे 
याद आते हैं वह दिन जो तुम्हारे साथ बीते थे 
सबेरे गैलरी में बैठ कर ,संग चाय पीते थे

पुरानी दास्ताने, दोस्तों की ,याद करते थे 
गया गुजरा न था, गुजरा जमाना ,बात करते थे निकलता दिन सवेरे कब, शाम को कैसे ढल जाता लगाकर पंख सारा वक्त था, कैसे निकल जाता 
न उलझन थी, न झंझट थे,सभी सुख और सुभीते थे
याद आते हैं वो दिन जो तुम्हारे साथ बीते थे 
सवेरे गैलरी में बैठ कर , संग चाय पीते  थे

मदन मोहन बाहेती घोटू 

अपने ही मेहमान हो गए

अपने घर में अपने वाले ही अपने मेहमान हो गए 
बस दो दिन के लिए आ गए समारोह की शान हो गए

अब शादी और समारोह में ,भीड़ जुटाना बड़ी भूल है
यूं ही वक्त की बरबादी है और खर्चा करना फिजूल है
पास किसी के समय नहीं है फिर भी पड़ जाता है आना हो करीब की रिश्तेदारी, पड़ता है व्यवहार निभाना
 वैसे रहते व्यस्त सभी है ,किंतु व्यस्तता इनकी ज्यादा
 मिलती नहीं जरा भी फुरसत,काम बोझ ने ऐसा बांधा 
फिर भी जैसे तैसे करके,वक्त निकाला और वो आए इतना था इसरार प्यार का , कि वो टाल उसे ना पाए
आए सबसे मिले,कृपा की,और फिर अंतर्ध्यान हो गए
 अपने घर में, अपने वाले, ही अपने मेहमान हो गए

घोटू
 
  
आज खून के रिश्ते भी मेहमान हो गए 

भाई बहन जो सगे सहोदर, संग संग खेले 
जिनके संग आत्मीय  रहे, रिश्ते अलबेले 
एक दूसरे प्रति प्यार था और दुलार था 
गांव के घर में सिमटा ,सब परिवार था 
एक वल्दियत थी,जिनकी पहचान एक थी 
एक दूसरे की आपस मे देख रेख थी 
धीर-धीरे बड़े हुए तो लगे बिछड़ने 
कोई गया घर छोड़ पढ़ाई ऊंची करने 
ब्याह रचा कर बहने, विदा हुई अपने घर
 बचेअकेले घर में ,मां बाबूजी केवल 
  सूने पन में कटा बुढ़ापा, रहे उदासे
  धीरे धीरे उनने भी ली अंतिम सांसे
 वह घर जिसमें चहल पहल खुशियां बसती थी आने-जाने, मिलने वालों की बस्ती थी 
 आज वक्त का उस पर ऐसा कहर हुआ है
  दुख के आंसू रोता ,घर खंडहर हुआ है 
  भाई बहन के सबके अपने-अपने घर हैं 
  एक दूसरे की सब रखते, खोज खबर है 
 प्यार पुराना कायम सब में लेकिन जब भी 
 राखी या दिवाली पर मिलते हैं जब भी 
 साथ सकल परिवार ,सभी को अच्छा लगता 
 एक दूसरे के प्रति श्रद्धा, प्रेम झलकता 
 पर दो-चार दिनों में ,जब उठ जाता मेला 
 रह जाता है फिर से घर सुनसान अकेला
  सबको जल्दी होती बांधे बोरी बिस्तर 
  नहीं पुराना घर, उनको लगताअपना घर 
  अपने ही अपनों से है अनजान हो गए 
  आज खून के रिश्ते भी मेहमान हो गए

मदन मोहन बाहेती घोटू