व्यथा कथा - 1
सपनो के कपडे ,सब के सब सिल गए
और बची रह गयी ,कतरन सी यादें
इन्ही चिंदियों की ,गुदड़ी को ओड ओड
करता हू प्रयास,बचने की ठिठुरन से
मैं एकाकीपन की
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व्यथा कथा - 2
पौधों को सींच सींच
रीत गए सब कूएँ
सागर में जल भरते
सूख गयीं सरिताएं
सूरज की ऊष्मा से
जाने कब उमड़ेंगे
घुमड़ घुमड़ घने मेघ
फिर से जल बरसाने
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व्यथा कथा - 3
समय की हांडी में
पाक गया सब कुछ
सबने मिल बाँट लिया
बची रह गयी बस
हांडी की कोने में थोड़ी सी खुरचन
चाहत है बस यही, ऐसा कुछ बन जाए
मेरी यह हांडी फिर से
द्रौपदी के अक्षय पात्र की तरह
लबालब भर जाए
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Sunday, September 19, 2010
व्यथा कथा
सपनो के कपडे ,सब के सब सिल गए
और बची रह गयी ,कतरन सी यादें
इन्ही चिंदियों की ,गुदड़ी को ओड ओड
करता हू प्रयास,बचने की ठिठुरन से
मैं एकाकीपन की
और बची रह गयी ,कतरन सी यादें
इन्ही चिंदियों की ,गुदड़ी को ओड ओड
करता हू प्रयास,बचने की ठिठुरन से
मैं एकाकीपन की
कौन कहता है की हम बूढ़े हुए हैं
आँख में इतने अनुभव बस गए हैं इसलिए कुछ धुंधलका सा छा गया है.
बाल में यूँ चांदनी बिखरी हुई है ज्यों तिमिर छट कर उजेला आ गया है.
बदन पर ये झुर्रियों के साल नहीं हैं ये कथाएँ हमारे संघर्ष की हैं.
खाई ठोकर, गिरे, संभले फिर बढे, यही गाथा हमारे उत्कर्ष की है.
हम झुके थे तुम्हें ऊंचा उठाने को इसलिए ये कमर थोड़ी झुक गयी है.
चाहते थे हमसे भी आगे बढ़ो तुम इसलिए ये गति थोड़ी रुक गयी है.
अगर ढलने लग गए तो क्या हुआ, चमकते हैं आज भी, आफ़ताब हैं.
कौन कहता है की हम बूढ़े हुए हैं, आज भी हम जवानो के बाप हैं.
बाल में यूँ चांदनी बिखरी हुई है ज्यों तिमिर छट कर उजेला आ गया है.
बदन पर ये झुर्रियों के साल नहीं हैं ये कथाएँ हमारे संघर्ष की हैं.
खाई ठोकर, गिरे, संभले फिर बढे, यही गाथा हमारे उत्कर्ष की है.
हम झुके थे तुम्हें ऊंचा उठाने को इसलिए ये कमर थोड़ी झुक गयी है.
चाहते थे हमसे भी आगे बढ़ो तुम इसलिए ये गति थोड़ी रुक गयी है.
अगर ढलने लग गए तो क्या हुआ, चमकते हैं आज भी, आफ़ताब हैं.
कौन कहता है की हम बूढ़े हुए हैं, आज भी हम जवानो के बाप हैं.
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