Sunday, April 13, 2025

अपनो से 

तुम मुझसे मिलने ना आते,
तो मुझे बुरा नहीं लगता है ,
पर कभी-कभी जब आ जाते,
तो यह मन खुश हो जाता है 

मैं यही सोच कुछ ना कहता,
तुम बहुत व्यस्त रहते होंगे ,
क्या मुझसे मिलने कभी-कभी,
 मन तुम्हारा अकुलाता है 

कोशिश करोगे यदि मन से 
तो समय निकल ही जाएगा,
मिलने जुलने से प्रेम भाव 
आपस वाला बढ़ जाता है 

है दूरी भले घरों में पर ,
तुम दिल में दूरी मत रखना ,
यह कभी टूट ना पायेगा,
 मेरा तुम्हारा नाता है 

इतनी तो अपेक्षा है तुमसे,
तुम कभी उपेक्षा मत करना 
वरना तुम्हारी यह करनी ,
हर दम मुझको तड़पाएगी 

मैं हूं उसे मोड़ पर जीवन के,
क्या पता छोड़ दूं कब सबको ,
तुम कभी-कभी मिल लिया करो,
 तो उम्र मेरी बढ़ जाएगी

मदन मोहन बाहेती घोटू 
घर का खाना

वही अन्न है, वो ही आटा ,
वही दाल और मिर्च मसाला 
फिर भी हर घर के खाने का,
 होता है कुछ स्वाद निराला 

हर घर की रोटी रोटी का ,
अपना स्वाद जुदा होता है 
घर की रोटी के आटे में,
 मां का प्यार गुंथा होता है 

कोई मुलायम फुल्का हो या
गरम चपाती , टिक्कड़ मोटी 
अलग-अलग पर सबको भाती ,
है अपने ही घर की रोटी

कुछ सिकती है अंगारों पर,
 कोई तवे पर फूला करती 
कोई तंदूरी होती है ,
स्वाद निराला अपना रखती

जला उंगलियां जिसे सेकती 
है मां वो रोटी है अमृत 
ममता के मक्खन से चुपड़ी ,
तुम्हें तृप्त करती है झटपट 

होटल से महंगीसे महंगी 
सब्जी तृप्त नहीं कर सकती 
पकवानों की भीड़ लगी पर 
पेट तुम्हारा ना भर सकती 

सब फीका फीका लगता है,
 घर वाले खाने के आगे 
तृप्त आत्मा हो जाती है 
अपने घर की रोटी खा के 

पांच सितारे होटल वालो 
के गरिष्ठ होते सब व्यंजन 
पर सुपाच्य और हल्का होता 
अपने घर का भोजन हरदम 

जिसके एक-एक ग़ासे में,
 स्वाद भरा हो अपनेपन का 
सबके ही मन को भाता है 
क्या कहना घर के भोजन का

मदन मोहन बाहेती घोटू