Saturday, January 28, 2012

बूढों का हो कैसा बसंत?

बूढों का हो कैसा बसंत?
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पीला रंग सरसों फूल गयी
मधु देना अब ऋतू भूल गयी
सब इच्छाएं प्रतिकूल गयी
        यौवन का जैसे हुआ अंत
        बूढों का हो कैसा बसंत
गलबाहें क्या हो,झुकी कमर
चल चितवन, धुंधली हुई नज़र
क्या रस विलास अब गयी उमर
         लग गया सभी पर प्रतिबन्ध
          बूढों का हो कैसा बसंत
था चहक रहा जो भरा नीड़
संग छोड़ गए सब,बसी पीड़
धुंधली यादें,मन है अधीर
          है सभी समस्यायें दुरंत
          बूढों का हो कैसा बसंत
मन यौवन सा मदहोश नहीं
बिजली भर दे वो जोश नहीं
संयम है पर संतोष नहीं
        मन है मलंग,तन हुआ संत
         बूढों का हो कैसा बसंत

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



Thursday, January 26, 2012

सोना बाथ और स्टीम बाथ

सोना बाथ और स्टीम बाथ
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सोनी,तेरी सुन्दरता ने,मुझको इतना उष्ण किया है
एसा लगता गरम कक्ष में,मैंने 'सोना बाथ 'लिया है
सर्दी में तेरे होठों ने,मुंह से ऐसी भाप निकाली,
मेरे अलसाये होठों को,जैसे 'स्टीम बाथ' दिया हो

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

उन्मुक्त विहंग

उन्मुक्त विहंग
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नहीं चाहता बंधू किसी प्रतिबन्ध में
नील गगन में उड़ता हुआ विहंग मै
साथ  पवन की लहरों के मै डोलता
सूरज की किरणों से हँसता,बोलता
बिना डोर के उडती हुई पतंग मै
नील गगन में उड़ता हुआ विहंग मै
पंख पसारे पंछी सा चहका चहका
खुशबू के झोकों जैसा महका महका
सागर के सीने में भरी तरंग मै
नील गगन में उड़ता हुआ विहंग मै
गौरी की आँखों  से बहते कजरे सा
मंडराता फूलों पर प्रेमी भँवरे  सा
होली की उडती गुलाल का रंग मै
नील गगन में उड़ता हुआ विहंग मै
सरिता की लहरों जैसा कल कल बहता
रंग  बिरंगी तितली सा उड़ता रहता
मतवाला,मनमौजी और मलंग मै
नील गगन में उड़ता हुआ विहंग मै

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, January 23, 2012

जलेबी-अतुकांत कविता

    जलेबी-अतुकांत कविता
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छंद, स्वच्छंद नहीं होते,
मात्राओं  के बंधन में बंधे हुए ,
तुक की तहजीब से मर्यादित
जैसे रस भरी बून्दियों की तरह,
शब्दों को बाँध कर,
मोतीचूर के लड्डू बनाये गये हो,
और लड्डुओं का गोल गोल होना ,
स्वाभाविक और पारंपरिक  है
पर जब शब्द,
अपने स्वाभाविक वेग से,
उन्मुक्त होकर,
ह्रदय से निकलते है,
तो जलेबी की तरह,
भावनाओं की कढ़ाई में तल कर,
प्रेम की चासनी में डूबे,
रससिक्त और स्वादिष्ट हो जाते है,
और उन पर ,
छंदों की तरह,
आकृति का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता,
और एक सा स्वाद होने के बावजूद भी,
हर जलेबी का,
अपना एक स्वतंत्र  मुखड़ा होता है,
आधुनिक,अतुकांत कविताओं की तरह

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

Sunday, January 22, 2012

अहो रूप-महा ध्वनि

अहो रूप-महा ध्वनि
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इक दूजे की करे प्रशंसा,हम तुम ,आओ
मै तुम्हे सराहूं,  तुम मुझे  सराहो
ऊंटों की शादी में जैसे,आये गर्दभ,गायक बन कर
ऊँट सराहे गर्दभ गायन,गर्दभ कहे  ऊँट को सुन्दर
सुनकर तारीफ,दोनों पमुदित,इक दूजे का मन बहलाओ
मै तुम्हे सराहूं,तुम मुझे सराहो
काग चोंच में जैसे रोटी, नीचे खड़ी लोमड़ी, तरसे
कहे  काग से गीत सुनाओ,अपने प्यारे मीठे स्वर से
तारीफ़ के चक्कर में अपने ,मुंह की रोटी नहीं गिराओ
मै तुम्हे सराहूं, तुम मुझे सराहो
इन झूंठी तारीफों से हम,कब तक खुद को खुश कर लेंगे
ना तो तुम ही सुधर पाओगे,और हम भी कैसे सुधरेंगे
इक दूजे की  कमी बता कर ,कोशिश कर ,सुधारो,सुधराओ
मै  तुम्हे सराहूं, तुम मुझे सराहो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, January 19, 2012

मातृभूमि

मातृभूमि 
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हे मातृभूमि तुझको प्रणाम
शत शत प्रणाम,शत शत प्रणाम
तेरी माटी में खेला मै
तेरी माटी  में मैला  मै
तेरी गोदी में बड़ा  हुआ
चलना सीखा और खड़ा हुआ
अ आ इ ई पढना सीखा
बाधाओं से लड़ना  सीखा

गिल्ली डंडा ,कंचे खेले
ये खेल बड़े थे अलबेले
लट्टू ,गेंदा,लंगड़ी घोड़ी
पेड़ों पर चढ़ ,जामुन तोड़ी
सीताफल खाये लगा पाल
दिनभर मस्ती,दिन भर धमाल

आगर की माटी लाल लाल
मेरा अबीर,मेरी गुलाल
मेरी प्रगति मेरा विकास
है सब इस माटी का प्रसाद
लेलो तुम चाहे कोई नाम
हम तो है वो ही घोटू राम
हे मातृभूमि तुझको प्रणाम
शत शत प्रणाम,शत शत प्रणाम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


गुल से गुलकंद

गुल से गुलकंद
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पहले थी तुम कली
मन को लगती भली
खिल कर फूल बनी
तुम खुशबू से सनी
महकाया  जीवन
हर पल और हर क्षण
पखुडी पखुडी खुली
मन में मिश्री  घुली
गुल,गुलकंद हुआ
उर आनंद   हुआ
असर  उमर का पड़ा
दिन दिन प्यार बढ़ा
कली,फूल,गुलकंद
हरदम रही   पसंद
खुशबू प्यार भरी
उम्र यूं ही गुजरी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, January 18, 2012

आठवीं मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता

  आठवीं मंजिल से  भोंकता हुआ कुत्ता
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गली में पट्टा
पर मन में,
स्वच्छंद विचरने की विकलता
रेलिंग से बंधा हुआ,
आठवीं  मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता
मन में छटपटाहट है
या शायद मालिकिन के आने की आहट है
दर्द है या ख़ुशी है
या कोई पीड़ा छुपी है
या जमीन का निरीह प्राणी ,
इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर चौंक रहा है
और नीचे वालों को देख कर भोंक रहा है
सुबह ही तो मालकिन ने टहलाया था
अपने नरम नरम हाथों से,
उसके रेशमी बालों को सहलाया था
और खिलाये थे दूध और बिस्कुट
तो चुपचाप उसी प्रेम से अभिभूत
अपनी मालकिन को निहार रहा था
जाने क्या क्या विचार रहा था
प्यार  के उन चंद पलों ने,
उसे बना दिया है उम्र भर का गुलाम
पूंछ हिलाता रहता है ,सुबह शाम
क्या होगी उसकी मानसिकता
किसी अनजान को देख कर झपटता
आठवीं मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, January 16, 2012

उंगलियाँ

         उंगलियाँ
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अंगूठा बस दिखाने  के काम का,
                             काम में पर बहुत आती उंगलियाँ
बालपन में थाम उंगली बढों की,
                             खड़ा कर चलना सिखाती  उंगलियाँ
जवानी  में पकड़ उंगली,पहुंचे तक,
                               पहुँचने की   राह  दिखाती उंगलियाँ
पहन कर के सगाई की अंगूठी,
                                 प्यार बंधन में बंधाती उंगलियाँ    
बाद शादी,बीबियों के इशारों,
                                 पर पति को  है  नचाती  उंगलियाँ
बीबियों की उँगलियों में जादू है,
                                 चटपटा  खाना बनाती उँगलियाँ
स्वाद की मारी हमारी जीभ है,
                                 जी न भरता, चाट जाती उंगलियाँ
चार मौसम,तीन महीने हर एक के,
                                 बरस पूरा है दिखाती उंगलियाँ
बड़ी छोटी,सभी मिल कर साथ है,
                                  एकता हमको सिखाती उंगलियाँ
बंध गयी तो एक मुट्ठी बन गयी,
                                     चपत मिल कर है  लगाती  उंगलियाँ
   आत्म गर्वित पडोसी है अंगूठा,
                                      दूरियां  उससे  बनाती   उंगलियाँ
कुछ उठाने की अगर जरुरत पड़े,
                                      अंगूठे को साथ लाती   उंगलियाँ
  उंगली टेड़ी करने से घी निकलता,
                                      पाठ जीवन का सिखाती  उंगलियाँ
एक उंगली गर किसी को दिखाओ,
                                      तीन है तुमको दिखाती उंगलियाँ
चार उंगली ,चार दिन की जिंदगी,
                                       याद हरदम है  दिलाती उंगलियाँ


मदन मोहन बाहेती'घोटू'



       




       

Friday, January 13, 2012

जल की अनंत यात्रा

जल की अनंत यात्रा
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बादलों में भरा हुआ जल,
जब पानी की बूंदों में बरसता है
तो धरती के दिल में आ बसता है
कुछ सहमा सहमा,
कुए की गहराई में सिमिट कर रह जाता है
कुछ सरोवर में तरंगें भरता है,
तो कुछ नदिया की कल कल में बह जाता है
और कुछ बेचारा,
मुसीबत का मारा,
ठिठुरता है सर्दी में,
और पहाड़ों की चोटियों पर ठहर जाता है
पर जब सूरज को दया आती है,
तो पहाड़ों की जमी बर्फ पिघल जाती है
और इतने दिनों का जमा जल ,जब पिघलता है
तो मचलता ,इठलाता हुआ चलता है
और जवानी के जोश में,
या कहो आक्रोश में,
कितने ही पहाड़ों को काट कर,
अपना रास्ता बनाता है
और अपना एक धरातल पाता है
और कल कल करता हुआ ,
अपनी मंजिल की ओर,
 निकल पड़ता है
पर कई बार ,उसको  ,
ऊंचे धरातल से ,
निचले धरातल पर गिरना पड़ता है
तो वो दहाड़ता है
अपने में सिमटी हुई ,चांदी उगलता है,
गर्जना करता है,
और छोटी छोटी बूंदों में बिखर बिखर,
फिर से ऊपर को उछालें मारता है
और उसे सूरज की कुछ किरणे,
इंद्र धनुष सा चमका देती है
कुछ क्षणों के लिए,सुहावना बना देती है
और फिर बेबस सा,
अपने नए धरातल पर,
धीरे धीरे ,अपनी पुरानी चल से चलने लगता है
कितने ही कटाव और बिखराव के बाद,
अंत में सागर में जा मिलता है
क्योंकि हर जल की नियति ,
सागर में विलीन होना ही होता है
और  फिर से बादल बन ,
जल की अनंत यात्रा का आरम्भ होता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, January 12, 2012

ऐसी प्रीत दिखाओ साजन

ऐसी  प्रीत दिखाओ साजन
बाहुपाश में मुझे बाँध कर,
पिघला दो मेरा सब तन मन
ऐसी प्रीत दिखाओ  साजन
दुखी ह्रदय का त्रास मिटा दो
युगों युगों की प्यास मिटा दो
प्रेम सुधा ऐसी बरसा दो,
भीग जाए मेरा सब तन मन
ऐसी प्रीत दिखाओ साजन
अपने रंग में मुझ को रंग  दो
मन में भर ऐसी उमंग दो
चटका तन के सभी अंग दो,
एसा कस कर बांधो बंधन
ऐसी प्रीत दिखाओ साजन
होठों की सब लाली पिघले
आँखों से कजरा बह निकले
मुंह से बस सिसकारी निकले
एसा दो मुझको आलिंगन
ऐसी प्रीत दिखाओ साजन
मेरा सब कुछ तुमको अर्पण
इक दूजे में पूर्ण समर्पण
जलता मेरे तन का कण कण
प्रीत धार  बरसाओ  साजन
ऐसी प्रीत दिखाओ   साजन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जब जब दिल में दर्द हुआ है

जब जब दिल में दर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
जब भी कोई आपके अपने,
             जिनको आप प्यार करते है
मुंह पर मीठी मीठी बातें,
            पीछे पीठ वार   करते है
जब जब भी बेगानों जैसा,
अपना ही हमदर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
रिश्तों के इस नीलाम्बर में,
               कई बार छातें है बादल                                      
होती है कुछ बूंदा बांदी,
               पर फिर प्यार बरसता निश्छल
शिकवे गिले सभी धुल जाते,
मौसम खुल बेगर्द  हुआ है
जब जब दिल में दर्द हुआ है
गलतफहमियों का कोहरा जब,
                आसमान में छा जाता है
देता कुछ भी नहीं दिखाई ,
                रास्ता नज़र नहीं आता है
दूर क्षितिज में अपनेपन का,
सूरज जब भी जर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
शीत ग्रीष्म के ऋतू चक्र के,
                         बीच बसंत ऋतू आती है  
नफरत के पत्ते झड़ते है ,
                        प्रीत कोपलें मुस्काती है
कलियों और भ्रमरों का रिश्ता,
जब खुल कर बेपर्द  हुआ  है
तब तब दिल में दर्द हुआ है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, January 9, 2012

रियो की रंगीनियों में खो गया मन

रियो की रंगीनियों में खो गया मन
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रियो की रंगीनियों में खो गया मन
बावरा सा ,दिवाना ये हो गया मन
स्वच्छ निर्मल जल,समुन्दर का किनारा
रजत तट  पर देख परियों का नज़ारा
नग्न बदना,रूपसियाँ,देह चिकनी
कर रही अठखेलियाँ,बस पहन बिकनी
देख कर उनका मचलता पूर्ण यौवन
भला विचलित नहीं होगा ,कौनसा मन
धूप में लेटी,तपाती,सुनहरा  तन
रियो की रंगीनियों में खो गया मन
ज़ील है ब्राजील  में और मस्तियाँ  है
और साम्भा नृत्य की तो बात क्या है
रात है रंगीन तो दिन भी हसीं  है
हर तरफ माहोल में  खुशियाँ बसी है
रोज ही त्योंहार सा दिखता नज़ारा
रियो तो है एक सुन्दर शहर प्यारा
सज रहा नव वर्ष में ये बना दुल्हन
रियो की रंगीनियों में खो गया मन
तैरता क्रिसमस ट्री,मन को लुभाता
है शुगर के लोफ सा पर्वत  सुहाता
देख केबल कार से सुन्दर नज़ारा
हरित पर्वत और रियो का शहर सारा
रेल से चढ़ ,पहाड़ पर होता अचंभा
लोर्ड क्राइस्ट का खड़ा स्टेचू लम्बा
बुढ़ापे में जवानी का चढ़ा चन्दन
रियो की रंगीनियों में खो गया मन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

(नव वर्ष पर ब्राज़ील की  यात्रा के दौरान लिखी गयी कविता)

सत्तरवें जन्मदिवस पर

सत्तरवें जन्मदिवस पर
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मन मदन,मस्तिष्क मोहन,मद नहीं और मोह भी ना
और मै बहती हवा सा,सुगन्धित हूँ,मधुर, भीना
कभी गर्मी की तपिश थी,कभी सर्दी थी भयंकर
कभी बारिश की फुहारों का लिया आनंद जी भर
कभी अमृत तो गरल भी,मिला जो पीता गया मै
विधि ने जो भी लिखा उस विधि जीता रहा मै
कभी सुख थे ,कभी दुःख थे,कभी रोता,कभी हँसता
कई जीवन रंग देखे,अब हुआ सत्तर बरस का

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

चलो चल कर चाँद चूमे

चलो चल कर चाँद चूमे
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इस धरा पर क्या धरा है,चलो चल कर चाँद चूमे
गुरुत्व आकर्षण परिधि,लांघ कर हम व्योम घूमे
व्यर्थ रिश्तो ने निरर्थक ,बाँध कर हमको रखा है
इसलिए हमने अभी तक,चन्द्र का मधु ना चखा है
रूपसी के मृदुल मुख सा,चमकता है चाँद सुन्दर
रात की तनहाइयों में,मधु लुटाता है मधुकर
मधुर मधु का पान कर के ,मस्त हम मदहोश घूमे
इस धरा पर धरा क्या है,चलो चल कर चाँद घूमे
पास तारों को फटकने नहीं देता ,चाँद है  ये
बहुत गर्वीला स्वम पर,रूप का उन्माद है ये
क्षीण है,बलहीन होकर,अमावास को लुप्त होता
राक्षसी है,रात जगता,और दिन भर रहे सोता
क्या रखा है ,वहां जाने की तुम्हारी आरजू में
इस धरा पर क्या रखा है चलो चल कर चाँद चूमे
मर गयी संवेदनाये,ह्रदय क्यों कुंठित हुए  है
दूर की चमचमाहट को,देख आकर्षित हुए है
भूल करके मूल अपना चाँद को चाहने लगे है
पता भी है ,चाँद पर जा ,आदमी हल्का लगे है
स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर,छाताये है मातृभू में
इस धरा में बहुत कुछ है,व्यर्थ ही क्यों चाँद चूमे

मदन मोहन बाहेती;घोटू;

 

जल प्रपात

जल प्रपात
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नदिया  का जल
जब कूदाफांदी करता है हो उच्श्रंखल
नीचे को भागता है अपना छोड़ धरातल
बड़ी गर्जना करता जाता
उर में छिपी हुई  सारी चाँदी दर्शाता
 बड़े वेग से नीचे गिर कर
छोटी छोटी सी बूंदों में बिखर बिखर कर
ऊपर उड़ता
सूरज की किरणों को छूकर,
सुन्दर इन्द्र धनुष सा खिलता
तब दिखता जल का प्रताप है
जब बनता वो जल प्रपात है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बेबसी

बेबसी
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तमन्ना है चाँद को जाकर छुए,खड़े  ढंग से मगर हो पाते नहीं
हुस्न की खिलती बहारें देख कर,छटपटाते,पर पटा पाते नहीं
खाने के तो हम बड़े शौक़ीन है,ठीक से पर अब पचा पाते नहीं
मन तो करता खिलखिला कर हम हँसे,होंठ खुल कर मगर मुस्काते नहीं
बढ़ गयी इतनी  खराशें गले में,ठीक से अब गुनगुना पाते नहीं
बांसुरी अब हो गयी है बेसुरी,सुर बराबर भी निकल पाते नहीं
यूं तो बादल घुमड़ते है जोर से,मगर बेबस से बरस पाते नहीं
उम्र ने एसा असर है कर दिया,चाह है पर कुछ भी कर पाते नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मै

       मै
     -----
कभी नदिया की तरह कल कल बहता हूँ
कभी सागर की लहरों सा उछालें भरता हूँ
कभी बादल की तरह आवारा  भटकता हूँ
कभी बारिश की तरह रिम झिम बरसता हूँ
कभी भंवरों की तरह गीत गुनगुनाता हूँ
कभी तितली की तरह फूलों पे मंडराता हूँ
कभी फूलों की तरह खिलता हूँ,महकता हूँ
कभी पंछी की तरह उड़ता हूँ,चहकता हूँ
कभी तारों की तरह टूट टूट जाता हूँ
कभी पानी के बुलबुलों सा फूट जाता हूँ
कभी सूरज की तरह तेज मै चमकता हूँ
कभी चंदा की तरह घटता और बढ़ता हूँ
मगर ये बात मै बिलकुल न समझ पाता हूँ
मै कौन हूँ,क्या हूँ और क्या चाहता हूँ

मदन मोहन बाहेती;घोटू;

Saturday, January 7, 2012

मुसीबत ही मुसीबत

मुसीबत ही मुसीबत
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मौलवी ने कहा था खैरात कर,
              रास्ता है ये ही जन्नत के लिये
वहां जन्नत में रहेंगी हमेशा,
             हूरें हाज़िर तेरी खिदमत  के लिये
ललक मन में हूर की ऐसी लगी,
             आ गये हम मौलवी की बात में
सोच कर जन्नत में हूरें मिलेगी,
            लुटा दी दौलत सभी खैरात में
और आखिर वो घडी भी आ गयी,
               एक दिन इस जहाँ से रुखसत हुए
पहुंचे जन्नत ,वेलकम को थी खड़ी,
              बीबी बन कर हूर,खिदमत के लिये
हमने बोला यहाँ भी तुम आ गयी,
            हो गयी क्या खुदा से कुछ गड़बड़ी
अरे जन्नत में तो मुझ को बक्श दो,
              इस तरह क्यों हो मेरे पीछे पड़ी
बोली बीबी मौलवी का शुक्र है,
              दिया जन्नत का पता मुझको  बता
कहा था उसने की तू खैरात कर,
             पांच टाईम नमाज़ें करके    अता
बताया था होगी जब जन्नत नशीं,
               हूर बन कर फरिश्तों से खेलना
मुझको क्या मालूम था जन्नत में भी,
               पडेगा मुझको ,तुम्ही को झेलना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बेटा हो या बेटी हो


बेटा हो या बेटी हो
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जो भी इस जग में है आता,
                   बेटा हो या बेटी हो
सबमे भरता प्राण विधाता,
                    बेटा हो या बेटी हो
देता सूर्य रोशनी सबको,
                       बेटा हो या बेटी हो
बांटे चाँद,चांदनी सबको,
                       बेटा हो या बेटी हो
हवा सभी का तन सहलाये,
                         बेटा हो या बेटी हो
प्रकृति सब पर प्यार लुटाये,
                         बेटा हो या बेटी हो
नदिया सबकी,सबके सागर,
                          बेटा हो या बेटी हो
शिक्षा सबको मिले बराबर,
                           बेटा हो या बेटी हो
माँ शिक्षित तो बच्चे शिक्षित,
                           बेटा हो या बेटी हो
मिल कर करें देश को विकसित,
                            बेटा हो या बेटी हो
 मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, January 6, 2012

रियो-कुछ शब्द चित्र

रियो-कुछ शब्द चित्र
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          १
सागर के तट पर,
अठखेलियाँ करता यौवन
बड़े बड़े दरवाजे,
छोटी सी चिलमन
          २
बूढ़े के आस पास,
दो दो हसीनायें
और दो दो कुत्तों को,
टहलाती  बूढीयायें 
               ३
तैरता क्रिसमस ट्री,
सौ मीटर ऊंचा
तीस लाख बल्बों से,
जगमग समूचा
              ४
हूरों के सपने थे,
पर किस्मत फूटी
मोटी सी महिलायें,
काली कलूटी
              ५
पहाड़ की चोंटी पर,
सातवाँ अजूबा
क्राइस्ट का स्टेचू,
सौ फिट से ऊंचा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

(दक्षिण अमेरिका के बाजील के रिओ शहर की यात्रा
के दौरान लिखे गए कुछ शब्द चित्र आज पोस्ट कर रहा हूँ )