Sunday, June 22, 2014

डिजिटल जीवन

          डिजिटल जीवन

एक हसीना की दो आँखों के संग आँखे चार करो,

 लेकर फेरे सात बाँध लो ,तुम रिश्ता जीवन भर का

सात आठ दिन की मस्ती फिर ,पड़ता बोझ गृहस्थी का ,

बड़ा बुरा होता है  पड़ना ,ननयानू  के चक्कर का 

दूध छटी  का याद आ जाता,बजते चेहरे पर बारह,

चार दिनों की रात  चांदनी ,फिर अंधियारा पाओगे

मुरझा जाता साथ समय के ,चाँद चौदवीं सा चेहरा,

पडो न तीन और तेरह में,मुश्किल में पड़ जाओगे

हार जीत में अंतर होता ,बस उन्नीस बीस का है,

किन्तु जीतने वाले के,हरदम होते  है   पौबारह 

नहीं किसी से तीन पांच में ,उलझाओ तुम अपने को ,

अच्छा सा मौक़ा देखो और हो जाओ नौ दो ग्यारह

छप्पन भोग कभी चढ़ते है,चलती छप्पन छुरी कभी,

होते सोलह संस्कार है ,गुण छत्तीस  मिला करते

कोई कहे 'साठा को पाठा 'कोई पागल सठियाया ,

एक जीभ रहती है कायम ,बत्तीस दांत हिला करते

करते दो दो हाथ हमेशा,हम बचपन से पचपन तक ,

एक एक जब मिल जाते है ,तो है ग्यारह हो जाते  

आज जिंदगी हुई डिजिटल ,सारा खेल डिजिट का है,

 यह जीवन का अंकगणित हम,बिलकुल नहीं समझ पाते

 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

झुर्रियों के सल

           झुर्रियों के सल

जब तुम पैदा हुए ,
मेरे पेट पर सल पड़े
तुम्हारी पत्नी आयी,
मेरे माथे पर सल पड़े
उमर के साथ साथ
बदलते गए हालात
पर सलों का सिलसिला,थम नहीं पाया
समय ने मसल दिया
दिल के अरमानों को ,
और अब तो पूरा ही,बदन है झुर्राया

घोटू    

गोलियां

                    गोलियां
हमारे देश की सरहद पे जो तैनात सैनिक है ,
हिफाजत में वतन की गोलियों से खेलते अक्सर
और हम भी,ज़रा भी कम नहीं है कोई सैनिक से,
हिफाजत जिस्म की करने ,खा रहे गोलियां दिन भर

घोटू 

लड़ाई और प्यार

          लड़ाई और प्यार

मिले थे पहली पहली बार जब हम एक दूजे से ,
प्यार का सिलसिला जागा ,नज़र हममें लड़ाई थी
लड़ा था पेंच हममें और तुममे ,डोर थी उलझी,
पतंगें ,हमने ,तुमने ,प्यार की मिलकर उड़ाई  थी
हुई  शादी ,लडाया लाड़ हमने थोड़े दिन तक तो,
हुआ करती थी कितनी बार फिर हममें  लड़ाई थी
समर्पण तुम कभी करती,समर्पण मैं कभी करता ,
प्यार दूने से हमको जोड़ती,अपनी लड़ाई   थी
हमारा रूठना और मनाना चलता ही रहता था ,
मोहब्बत जो मिठाई थी ,चाट जैसी लड़ाई थी
हमारे प्यार की मजबूत सी जो ये इमारत है,
हमें मालूम है,बुनियाद में ,इसकी  लड़ाई थी

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

दो पत्नी पटाऊ कवितायें

         दो  पत्नी पटाऊ कवितायें
                         १
                 गृहलक्ष्मी
        तुम मेरी  प्यारी पत्नी हो
         और इस घर की गृहलक्ष्मी हो
          मेरे इस घर में चलता है ,एक छत्र शासन तुम्हारा
        मैं सारा दिन करके मेहनत
         लाता कमा,लक्ष्मी ,दौलत
        तुम झट से खर्चा कर देती, खुला हुआ है हाथ तुम्हारा
         मैं कहता तुम खर्चीली हो
         तुम कहती तुम पतिव्रता हो
         घर में कोई दूसरी लक्ष्मी ,आये तुमको नहीं गंवारा
          आओ ऐसा काम करें कुछ
           तुम भी हो खुश और मैं भी खुश
          मैं विष्णु ,तुम लक्ष्मी बन कर ,आओ दबाओ पाँव हमारा
                            २
                     स्वर्ण सुंदरी
         एक दिन बीबीजी
         खफा हुई थी खीजी
         बोली क्यों झगड़ा तुमकरते हो मेरे संग
          देखो जी ,मुझसे तुम,
          लोहा मत ले लेना
          तंग तुम्हे कर दूंगी,मुझसे जो छिड़ी जंग
           झट से कर सरेंडर
           हम बोले ये डियर
           सोने से ढला बदन ,स्वर्ण सुंदरी हो तुम
            सोना है  हमें पसंद  
            सोने की मूरत संग
            सोने की प्रतिमा से ,लोहा क्यों लेंगे हम ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'