महानगरीय जीवन
भीड़ ही है भीड़ फैली सब कहीं,
लापता से हो गए ,लगता हमीं
हर तरफ अट्टालिकाएं है खड़ी ,
कहाँ पर ढूंढोगे तुम अपनी जमीं
एक घर पर दूसरा घर चढ़ रहा ,
छू रही इमारतें है आसमां
आदमी से आदमी टकरा रहा ,
है अनोखी ,इस शहर की दास्ताँ
बसे,ट्रेने ,कार ,मोटर साईकिल ,
यहाँ पर हर चीज ही गतिमान है
जिधर देखो ,उधर भागादौड है ,
नहीं ठहरा कहीं भी इंसान है
प्रगति की गति ने की ये गती ,
सांस लेने को हवा ना शुद्ध है
हो रही है आदमी की दुर्गती ,
इसलिए हर शख्स लगता क्रुद्ध है
है मशीनी सी यहाँ की जिन्दगी,
सिलसिला यूं नौकरी,व्यापार का
हफ्ते में है छह दिवस ,परिवार हित,
और केवल एक दिन परिवार का
दौड़ता है,रात दिन बेचैन है ,
पेट है परिवार का जो पालता
कहने को तो है ये महानगरी मगर,
नहीं आती नज़र कोई महानता
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
भीड़ ही है भीड़ फैली सब कहीं,
लापता से हो गए ,लगता हमीं
हर तरफ अट्टालिकाएं है खड़ी ,
कहाँ पर ढूंढोगे तुम अपनी जमीं
एक घर पर दूसरा घर चढ़ रहा ,
छू रही इमारतें है आसमां
आदमी से आदमी टकरा रहा ,
है अनोखी ,इस शहर की दास्ताँ
बसे,ट्रेने ,कार ,मोटर साईकिल ,
यहाँ पर हर चीज ही गतिमान है
जिधर देखो ,उधर भागादौड है ,
नहीं ठहरा कहीं भी इंसान है
प्रगति की गति ने की ये गती ,
सांस लेने को हवा ना शुद्ध है
हो रही है आदमी की दुर्गती ,
इसलिए हर शख्स लगता क्रुद्ध है
है मशीनी सी यहाँ की जिन्दगी,
सिलसिला यूं नौकरी,व्यापार का
हफ्ते में है छह दिवस ,परिवार हित,
और केवल एक दिन परिवार का
दौड़ता है,रात दिन बेचैन है ,
पेट है परिवार का जो पालता
कहने को तो है ये महानगरी मगर,
नहीं आती नज़र कोई महानता
मदन मोहन बाहेती'घोटू'