Monday, March 10, 2014

कुत्ते कि पूँछ

कुत्ते कि पूँछ

जब भी हसीनो से नज़र टकराती है
मुझपे एक दीवानगी सी छाती  है
जवानी के दिनों का ख़याल आता है
बासी कढ़ी में फिर उबाल  आता है
आग सी एक लग जाती है दिल के अंदर
गुलाटी मारने को लगता मचलने बन्दर
भले ही दम नहीं पर चाह मचलती रहती  
पूंछ  है कुत्ते की ,टेढ़ी ही ये  सदा  रहती 

घोटू

पतझड़ के पत्ते

         पतझड़ के पत्ते

पतझड़ के पत्ते ,
जब अपनी डाल  को छोड़ कर,
हवा के झोंकों के संग ,
इधर उधर राजमार्गों पर भटक जाते है
इकट्ठे कर,जला दिए जाते है
और जो पेड़ के नीचे ही ,
गड्ढों  में दबे रह जाते है ,
कुछ समय बाद,खाद बन जाते है
नयी फसल को उगाने के काम आते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पत्ते की जीवनयात्रा

           पत्ते की जीवनयात्रा

एक बरस पहले फूटे थे मेरे अंकुर ,
                       नरम रेशमी ,नन्हे किसलय बन मुस्काये 
टहनी में मातृत्व जगा ,फिर विकसे  बढ़ कर
                          मस्त हवा के झोंकों में नाचे,   लहराये ,
भाई बंधू कितने ही मिल ,पले  साथ में ,
                           सूखा था जो तरु ,हरित होकर हर्षाया
नीड़  बना बस गए वहाँ कितने ही पंछी ,
                            थके पथिक को छाया देकर ,सुख पहुँचाया
ग्रीष्म ऋतू में प्रखर ताप सूरज का झेला ,
                             भीगे पानी में ,जब था मौसम   बरसाती
और कंपकंपाती सर्दी मे भी ठिठुरे हम ,
                             फिर भी जलती रही हमारी ,जीवन बाती
पर जब पतझड़ आया तो डाली से बिछुड़े ,
                             और गिर गए,एक सुहानी याद बन गए
इधर उधर उड़ गए हवा के संग कितने ही ,
                              साथ समय के ,बाकी ,गल कर,खाद बन गए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'