Tuesday, September 27, 2011

हे अग्नि देवता!

हे अग्नि देवता!
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हे अग्नि देवता!
शारीर के पंचतत्वों  में,
तुम विराजमान हो,
तुम्ही से जीवन है
तुम्हारी ही उर्जा से,
पकता और पचता भोजन है
तुम्हारा स्पर्श पाते ही,
रसासिक्त दीपक
 ज्योतिर्मय हो जाते है,
दीपवाली छा जाती है
और,दूसरी ओर,
लकड़ी और उपलों का ढेर,
तुमको छूकर कर,
जल जाता है,
और होली मन जाती है
होली हो या दिवाली,
सब तुम्हारी ही पूजा करते है
पर तुम्हारी बुरी नज़र से डरते है
इसीलिए,  मिलन की रात,
दीपक बुझा देते है
तुम्हारी एक चिंगारी ,
लकड़ी को कोयला,
और कोयले को राख बना देती है
पानी को भाप बना देती है
तुम्हारा सानिध्य,सूरत नहीं,
सीरत भी बदल देता है
तो फिर अचरज कैसा है
कि तुम्हारे आसपास,
लगाकर फेरे सात,
आदमी इतना बदल जाता है
कि माँ बाप को भूल जाता है
बस पत्नी के गुण गाता है
इस काया की नियति,
तुम्ही को अंतिम समर्पण है
हे अग्नि देवता! तुम्हे नमन है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


 

कैसे जली स्वर्ण की लंका?

कैसे जली स्वर्ण की लंका?
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मन में आती है ये शंका
कैसे जली स्वर्ण की लंका
क्योंकि ऐसे धूं धूं करके,
सोना कभी नहीं जल सकता
मनन किया तो कारण पाया
की सोने की लंका को,
हनुमानजी ने कैसे जलाया
लंका के भवनों के शिखरों पर,
चपड़ी से चिपकी हुई,
सोने की परत थी
उसे जलाने के लिए,
बस एक चिंगारी की जरुरत थी
हनुमानजी ने ,सीता  को ढूंढते समय,
देखली थी,शिखरों पर,
उखड़ी स्वर्ण परत के नीचे,
चपड़ी काली काली
और जैसे ही उनकी पूंछ पर आग लगी,
उन्होंने छत पर कूद कूद कर,
सोने की लंका जला डाली

मदन मोहन बहेती'घोटू'

आओ हम तुम जम कर जीमें

आओ हम तुम जम कर जीमें
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आओ हम तुम जम कर जीमें
तुम भी खाओ,हम भी खायें,बैठ एक पंक्ति में
आओ हम तुम जम कर जीमें
जनता के पैसे से चलता है ये सब भंडारा
रोज रोज ही भोग लगाता ,अपना कुनबा सारा
पत्तल पुरस,बैठ पंगत में,खायें,जो हो जी में
आओ हम तुम जम कर जीमें
जब तक बैठे हैं कुर्सी पर,जम कर मौज  उड़ायें
देशी घी की बनी मिठाई, जा विदेश में   खायें
अपने घर को जम कर भर लें,थोडा धीमे धीमे
आओ हम तुम जम कर जीमें
लेकिन बस उतना ही खायें,हो आसान पचाना
वर्ना जा तिहार का खाना,हमें पड़ेगा  खाना
जाने कल फिर से हो,ना हो,पाँचों उंगली घी में
आओ हम तुम जम कर जीमें

मदन मोहन बहेती 'घोटू'