Sunday, February 28, 2016

        चखने का तो हमको हक़ है

हाय बुढ़ापे ,तूने आकर ,ऐसा हाल बिगाड़ दिया है
हरी भरी थी जीवन बगिया ,तूने उसे उजाड़ दिया है
उजले केश,झुर्रियां तन पर ,अब अपनी पहचान यही है
इस हालत में ,प्यार किसी का ,मिल पाना आसान नहीं है
ढंग से खड़े नहीं रह पाते ,और जल्दी ही थक  जाते    है
हुस्न और दुनिया की रंगत ,मुश्किल से ही तक पाते है
क्योंकि आँख में चढ़ा धुंधलका ,आई नज़र में है कमजोरी
गए जवानी के प्यारे दिन ,अब तो याद बची है  कोरी
कामनियां मन को ललचाती ,मगर डालती घास नहीं है
दूर दूर छिटकी रहती है,कोई फटकती  पास  नहीं है
कभी चमकती थी जो काया ,आज पुरानी सी दिखती है
इसीलिये कोई की नज़रें ,खंडहरों पर  ना टिकती  है
चबा नहीं पाते है ढंग से ,दांतों में दम  नहीं  बचा है
बहुत चाहते ,लूट न पाते ,हम खाने का आज मज़ा है
खा भी लिया ,अगर गलती से ,मुश्किल होता उसे पचाना        
उमर बढ़ी ,कमजोर हुआ तन ,उसमे कोई जोर बचा ना
पर अरमान भरा है ये दिल,अब भी धड़क रहा धक धक है
यूं ही कब तक ,रहें तरसते ,चखने का तो ,हमको हक़ है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 
           शैतानियाँ

कुछ बच्चे शैतानी करते है तो भी प्यारे लगते है
कुछ लड़के,शैतानी कर,लड़की को पटाया करते है
कुछ साधू है शैतान बने , आती है खबरें ,यदा कदा
मुंह से कहते राम राम और छुरी बगल में रखें सदा
कुछ डॉक्टर भी शैतान बने ,है सेवा जिनका परम धर्म
कन्या की भ्रूण हत्या करवा ,वो करते रहते पाप कर्म
भोले मासूम मरीजों की ,वो किडनी चोरी करते है
अपनी  शैतानी हरकत से ,अपनी वो तिजोरी भरते है
शैतान बने है कुछ अफसर ,ढाते है जुलम ,मातहत पर
बच्चों का शोषण करते है ,शैतान बने है कुछ टीचर
कुछ शैतानी ,लगती प्यारी ,जो पत्नी हम संग करती है
सजधज कर करती छेड़छाड़ ,सब जिद मनवाया करती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
                 सब चलता है

आँखे चलती,पलकें चलती ,इधर उधर नज़रें चलती है
मुंह चलता ,हम दांत चलाते ,कैंची सी जिव्हा चलती है
चलते हाथ,उँगलियाँ चलती,पैरों से मानव चलता  है
जब तक चलती सांस हमारी ,तब तक ही जीवन चलता है
सूरज चलता रहता दिन भर ,और रात चंदा चलता  है ,
मुश्किल से ही घर चल पाता ,अगर नहीं धंधा चलता है
जल भर कर बादल चलते है,शीतल मंद हवा  चलती है
चंचल सागर लहरें चलती,इठला कर नदिया  चलती है
सरे राह चलते चलते भी ,कोई हमसफ़र मिल जाता है
चक्र समय का जब चलता है,कोई नहीं रोक पाता   है
कुत्ते भोंका ही करते जब मस्ती से हाथी चलता  है
टेढ़ी मेढ़ी चाल ग्रह चलें ,नियती  का  चक्कर चलता है
चालबाज जो चालू होता ,चलता पुर्जा कहलाता  है
जिसका चालचलन अच्छा है,वो सबसे इज्जत पाता है
चलती को गाडी कहते है,जूते,लाठी ,गोली चलती
लेकिन एक शाश्वत सच है,हर घर में  बीबी की चलती
कई बार ,किस्मत अच्छी हो,खोटा सिक्का चल जाता है
भैया हमको सब चलता है,जो फ़ोकट में मिल जाता  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Saturday, February 27, 2016

           दावतनामा

तुम भी चाहो ,मैं ना आऊँ ,
     यूं भी मुश्किल मेरा आना
फिर भी दस्तूर निभाने को,
       तुमने भेजा दावतनामा
कह सकते अब तुम दुनिया से ,
कि तुमने तो भेजा था न्योता
पर दगाबाज मैं  ही निकला,
मैंने  ही मार  दिया  गोता
यूं बीच  राह में खतम हुआ,
          मेरा तुम्हारा,  अफ़साना 
फिर भी दस्तूर  निभाने को,
           तुमने भेजा  दावतनामा
यदि गलती से मैं आ जाता ,
तुमसे मिलती नज़रें मेरी
कर याद पुरानी बातों को,
यदि पनियाती ,आँखें तेरी
मैं आंसूं पोंछ नहीं पाता ,
         और दिल को पड़ता तड़फ़ाना
फिर भी दस्तूर निभाने को,
          तुमने भेजा  दावतनामा
नादान उमर में देख लिए ,
हमने जाने क्या क्या सपने
मासूम हृदय क्या जाने था ,
हम एक दूजे हित ,नहीं बने
 तुम्हारा है  अभिजात्य वर्ग , 
            मैं अदना ,पगला,दीवाना
  फिर भी दस्तूर निभाने को  ,
             तुमने भेजा दावतनामा
हो रही पराई हो अब तुम, 
यूं भी मेरी अपनी ,कब थी
संग जीने मरने की कसमे ,
बचपन वाली हरकत ,सब थी
दुनियादारी की रस्मो से ,
         तुम भी,मैं भी था अनजाना
फिर भी दस्तूर निभाने को ,
             तुमने भेजा दावतनामा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'                      

              
         मैं पंडित हूँ    

युगों युगों से ,धर्म पुरुष मैं ,ब्रह्मपुरुष ,महिमा मंडित हूँ 
                                                               मैं पंडित हूँ
भले जन्म ,यज्ञोपवीत हो ,या विवाह बंधन की रस्मे ,
संस्कार कोई जीवन का, मुझ बिन पूरा हो ना   पाता
मुझे देवता तुल्य समझ कर ,सब सन्मान दिया करते है ,
ब्राह्मणदेव कहाता  हूँ मैं  ,और घर घर में पूजा जाता
वर्णव्यवस्था में भारत की,श्रेष्ठ,पुराणो में वर्णित  हूँ 
                                                           मैं पंडित हूँ
मिला हुआ है मुझको ठेका ,स्वर्गलोक  के  पारपत्र  का,
मुझ को दो तुम दान दक्षिणा ,टिकिट स्वर्ग का कट जाएगा
सारे मंदिर और तीरथ  पर, एक छत्र साम्राज्य  हमारा ,
मुझ से हवन ,यज्ञ करवा लो,सब दुःख संकट  हट जाएगा
भजन कीर्तन,कथा भागवत, मैं  करवाता  आयोजित हूँ 
                                                                 मैं पंडित हूँ
स्थिर है जो दूर करोड़ो मील, शनि,मंगल या राहु,
देख रहे हो ,वक्र दृष्टी से,और तुम पर पड़ते हो भारी
जाप करा ,पूजन करवा लो ,शांत सभी को मैं कर दूंगा,
कुछ न बिगाड़ सकेगा कोई,सीधी उन तक पहुँच हमारी
मंत्र शक्ति से और हवन कर ,मैं सबको कर देता चित हूँ 
                                                                मैं पंडित हूँ 
मेरा 'कम्युनिकेशन 'है सीधा,स्वर्गलोक की उस दुनिया से ,
इतनी तेज 'कुरियर सर्विस'नहीं कभी भी आप पायेंगे
इधर मुझे भर पेट खिलाओ ,अच्छे अच्छे भोजन,व्यंजन ,
तृप्त तुम्हारे सारे पुरखे ,उधर स्वर्ग  में  हो  जायेंगे 
श्राद्ध पक्ष में ,ये स्पेशियल ,सेवा ,मैं  करता  अर्पित हूँ 
                                                             मैं पंडित हूँ
 मदन मोहन बाहेती'घोटू'                                                       

Sunday, February 21, 2016

            वकीलों का काला कोट

मैंने पूछा वकीलों से ,पहने काला कोट  क्यों ,
         मुवक्किल की काली करतूतें छिपाने वास्ते
उल्टा सीधा पेंच कानूनी ,लगाकर हमेशा ,
          निकाला करते हो उसको  बचाने के रास्ते
तुमसे अच्छे डॉक्टर है ,श्वेत जिनके कोट है,
          मरीजों की करते सेवा,ठीक करते  रोग है
ऑपरेशन ,काटापीटी ,तन  की करते है मगर ,
          मर्ज को वो हटाते है ,कितने अच्छे लोग है
रंग काला कोट का यदि जो बदल लो तुम अगर ,
         मन में सेवा भाव से तुम करो रक्षा सत्य की
पुण्य का यह काम है ,तुम जरा करके देख लो ,
        सब करेंगे तारीफें ,उस परोपकारी कृत्य  की    
बात मेरी सुनी उनने ,हंस के ये उत्तर दिया ,
         सत्य कहते आप है ,हम चुस्त और चालाक है
भले ही हम पहनते है ,काला काला  कोट पर,
            शर्ट है उजली हमारी ,श्वेत है हम  पाक   है
हुस्न को बुरके में काले ,छुपा कर रखते हसीन ,
          वैसे ही व्यक्तित्व को हमने छुपा कर है रखा
 बुरी नज़रों से बचाता , काला टीका जिस तरह ,
           हमने अपनी सादगी को ,काले कपड़ों से ढका

मदन मोहन बाहेती'घोटू'         
 अनुभूती
 
सरदी  में सरदी  लगती ,गरमी  में गरमी
       अनुभूति हर मौसम की ,तन पर होती है 
कभी हंसाती,कभी रुलाती,कभी नचाती ,
       खुशियां ,गम की अनुभूति ,मन पर होती है   
कभी टूटता ,आहें भरता और तड़फता,
         कभी दुखी जब होता है तो दिल रोता  है
ये दिल अनुभूती का इतना मारा है ,
         पुलकित होता ,खुश होकर पागल  होता है
किन्तु एक वह परमशक्ति जो विद्यमान है ,
       जग के हर प्राणी का जीवन  चला  रही है
अनुभूति जो उसकी सच्चे मन से करलो,
        पाओगे हर जगह ,बताओ कहाँ  नहीं  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
          नेताजी की काला सफेद             

तुम्हारा क्या गुणगान करें,हर बात निराली ,तुम्हारी
तुम्हारा खून सफ़ेद हुआ और नीयत  है काली,काली
तुम्हारी है काली जुबान ,तुम झूंठ सफ़ेद बोलते  हो
तुम काले कागा,पोत सफेदी ,बन कर हंस डोलते हो
तुम भगत श्वेत हो बगुले से ,मछली पर रहती नज़र टिकी
है नहीं दाल में काला कुछ, काली सारी  ही दाल दिखी
दिखते हो उजले ,पाक ,साफ़,काले भुजंग सी नीयत है
है काले सभी   कारनामे ,कहने की नहीं जरूरत   है
मुंह काला कितनी बार हुआ ,आयी ना तुमको लाज कभी
तुम हो सफेद हाथी जैसे  ,चर रहे  देश की  घास  सभी
है काली भैंस बराबर ही लगता तुमको काला  अक्षर
काले पीले कागज करके ,तुम रहे तिजोरी अपनी भर
सुन बात हमारी चुभती सी ,नेताजी ने ये हमे कहा
शाश्वत सच,काले और सफ़ेद ,का युगोंयुगों से साथ रहा
सूरज की उजली  श्वेत धूप  ,साथी  छाया ,होती काली
है काले बाल ,श्वेत तन पर, आँखों की है पुतली  काली
जल सूखे काले सागर का ,तो बन जाता है श्वेत लवण
काले बादल ,गिरि पर बरसे ,हिम कण सफ़ेद ,बन जाते जम
थे कृष्ण कन्हैया भी काले ,गोरी उनकी राधा ,रुक्मण
माँ  काली ने अवतार लिया था दुष्टों का संहारक  बन
फिर भी समाज सेवक सच्चे ,हम खुद काले से डरते है
हम इसीलिये तो काला धन ,स्विस की बैंकों में धरते है
यह देशभक्ति का सूचक है ,कोई अपराध  जघन्य नहीं
मैं  बोला नेता धन्य धन्य ,तुम जैसा कोई   अन्य नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
           अगर जो तुम नहीं मिलते

अगर जो तुम नहीं मिलते,तो फिर कुछ भी नहीं होता
तुम्हारे बिन ,  मेरा  जीवन , यूं  ही  ठहरा ,वहीँ  होता
न होती प्रीत राधा की ,तो  वृन्दावन  नहीं होते
न रचता रास ,जमुना तट ,मधुर वो क्षण नहीं होते
तुम्हारे प्यार की गंगा ,न मिलती मेरी यमुना  से,
हमारी  प्रीत  के  पावन ,मधुर  संगम  नहीं   होते
न जाने  तू  कहाँ  होती  ,न  जाने   मैं  कहीं  होता
अगर जो तुम नहीं मिलते तो फिर कुछ भी नहीं होता
मनाने ,रूठने वाले ,वो  पागलपन  नहीं  होते
उँगलियाँ चाटने वाले ,मधुर व्यंजन नहीं होते
ये मेरा जागना ,सोना ,रोज की मेरी दिनचर्या  ,
यूं ही बिखरी हुई रहती ,अगर बंधन नहीं होते
हमारे साथ ये होता ,तो बिलकुल ना सही  होता
अगर जो तुम नहीं मिलते तो फिर कुछ भी नहीं होता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
  
         लड्डू और जलेबी

एक जमाना था हम भी थे दुबले पतले ,
       लगते थे मोहक,आकर्षक ,सुन्दर ,प्यारे
जिसे देख ,तुम रीझी और प्रेमरस भीझी ,
       मिलन हुआ ,हम जीवनसाथी बने तुम्हारे
और आजकल तुमको रहती यही शिकायत,
       फूल गए हम , फ़ैल गया है बदन  हमारा
दौलत ये सब ,सिर्फ बदौलत है तुम्हारी,
         चर्बी नहीं,भरा है तन में  प्यार  तुम्हारा
चखा चाशनी, अपनी रसवन्ती बातों की ,
      स्वर्णिम आभा लिए जलेबी  तुम ना होते
नहीं प्यार का रोज रोज आहार खिलाते ,
       तो फिर गोलमोल  लड्डू से  हम ना  होते

घोटू
            

Thursday, February 18, 2016

           संगठन की शक्ति

कई सींकें बंध गई तो एक झाड़ू बन गई ,
       जसने कचरा बुहारा और साफ़ की सब गंदगी
और जब बिखरी वो सींकें,ऐसी हालत हो गयी,
       बन के कचरा ,झेलनी उनको पडी शर्मिंदगी
ठेले में अंगूर के गुच्छे सजे थे ,बिक रहे ,
        सौ रुपय्ये के किलो थे  ,देखा एक दिन हाट में
वही ठेला बेचता था ,टूटे कुछ अंगूर भी ,
        एक किलो वो बिक रहे थे,सिर्फ रूपये  साठ  में
मैंने ठेलेवाले से पूछा  ये भी क्या बात है
        एक से अंगूर दाने ,दाम में  क्यों फर्क है
ठेलेवाले ने कहा ,मंहगे जो  गुच्छे में बंधे ,
       टूट कर जो बिखरते है , उनका बेडा गर्क  है
कई धागे सूत के मिलकर एक रस्सी बन गई ,
      वजन भारी उठा सकती थी,बड़ी मजबूत थी
वरना कोई भी पकड़ कर तोड़ सकता था उसे ,
    जब तलक वो थी अकेली , एक धागा सूत थी
इसलिए क्या संगठन में शक्ति है ये देखलो ,
    साथ में सब रहो बंध कर,और मिलजुल कर रहो
अकेला कोई चना ,ना फोड़ सकता भाड़ है,
    एक थे हम ,और रहेंगे एक ही,ऐसा  कहो    

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
       मिली हो जबसे तुम हमसे

मिली हो जबसे,तुम हमसे ,हुए है बावरे से हम
न सर्दी है ,न गर्मी है,बसंती   लगता हर मौसम
झिड़कती प्यार से जब तुम,बरसने फूल लगते है
कभी जब मुस्करा देती ,हमे कर देती हो बेदम
तुम्हारे खर्राटे  तक भी ,मधुर लोरी से लगते है ,
तुम्हारी रोज की झक झक ,लगा करती हमे सरगम
तुम्हारे हाथों को छूकर ,कोई भी चीज जो बनती,
बड़ी ही स्वाद लगती है ,न होती पकवानो से कम
बनाती हो जो तुम फुलके ,वो लगते मालपुवे से,
तुम्हारी सब्जियां खाकर ,उँगलियाँ चाटते है हम
 इसी डर से,कहीं तुम पर ,नज़र कोई न लग पाये  ,
लटकते नीबू  मिरची से ,तेरे दर पे है हाज़िर हम
तुम्हे खुश रखने में जानम ,निकल जाता हमारा दम
खुदा का शुक्रिया फिर भी,मिली तुम जैसी है हमदम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
           बदलता बचपन और आज

रह रह मुझे याद आता है,अपना सुन्दर,प्यारा  बचपन
चहल  पहल रहती थी घर में,पांच सात थे भी बहन हम
एक दूसरे  का ,आपस में  ,हरदम ध्यान रखा जाता था
धीरे धीरे ,स्वावलम्बी , बनना सबको  आ  जाता  था
देख देख कर ,एक दूजे को ,खुद ही बहुत सीख जाते थे  
लाइन लगा ,बैठ चौके में  ,गरम गरम खाना खाते थे
बड़े भाई के ,छोटे कपड़े ,माँ छोटों को पहनाती थी 
और बड़ों की सभी किताबें ,छोटों के भी काम आतीं थी
वर्किग है माँ बाप आजकल,इतना बदला रहन सहन है
अब बच्चे 'क्रैचों 'में पलते ,एकाकी,ना भाई बहन  है
भाई बहन की भीड़ भाड़ में ,तब बच्चे खुद पल जाते थे
कर आपस मे ,सलाह,मशवरा ,आगे बहुत निकल जाते थे
शिशु आजकल 'क्रैचों 'में,फिर बोर्डिंग में  डाले  जाते है
प्यार नहीं ,वैभव दिखला कर,अब बच्चे पाले जाते है
दौड़ कॅरियर की फिर उनको,कामो मे इतना उलझाती
जीवन की इस उहापोह में,आत्मीयता, पनप न पाती
हमने उनका बचपन छीना ,उसका हमे मिल रहा बदला
आज हमारी संतानो का ,है रुख काफी बदला  बदला
व्यस्त बहुत माँ बाप हो गए ,बच्चो के हित समय नहीं है
बड़े हुए तो मात पिता हित ,बच्चों को भी समय नहीं है 
जैसा किया ,भुगतते वैसा,अंतर अधिक न उनमे,हममे
हमने भेजा 'क्रैच 'बोर्डिंग ,भेज रहे वो  वृद्धाश्रम  में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, February 15, 2016

       बारात  में 

 शादी में उनकी क्या बताएं ,कैसे ठाठ थे
थे ढेर सारे स्नेक्स और स्टाल   चाट  के 
क्या खायें और क्या चखें,मुश्किल में पड़े थे ,
वेटर बुलाते एक, तो आ जाते   आठ थे

व्यंजन हजारों खाने की टेबल की शान थे
एक एक से बढ़ ,एक हसीं ,मेहमान थे  
खाने पे जोर दे कि खानेवालों को देखें,
  दुविधा फंसे ,हम तो यूं ही परेशान थे 

 फंक्शन में उनके रौनकें कुछ ऐसी रही थी
खाना था लाजबाब और शराब बही थी 
चटखारे लेके बोला एक बूढा सा बराती ,
दुल्हन तो दुल्हन ,उसकी माँ भी ,कम तो नहीं थी    

घोटू             
           मज़ा

न आता गर्म बालू से,गरम पानी की थैली से ,
        है तपती धूप में आता ,मज़ा असली सिकाई का
न सूखी बर्फियों में है ,न लड्डू ,बालूशाही में,
       जलेबी की टपकती चाशनी , सुख है  मिठाई  का
लूटते चोर डाकू और बड़े शोरूम मालों में ,
        मज़ा लेकिन निराला है ,हसीनो की लुटाई का
मज़ा ना मार में माँ की,पिता की या कि टीचर की,
         मज़ा कुछ और ही होता है बीबी से  पिटाई का

घोटू

       वेलेंटाइन डे के बाद

चेहरा हसीन ,बातों में मिश्री घुली हुई,
         लम्बी सी लिस्ट ,दोस्तों की उनने जोड़ ली
अबके से वेलेंटाइन पर ,इतने मिले गुलाब ,
         अब्बू ने उनके ,फूलों की दूकान खोल ली

घोटू

Sunday, February 14, 2016

              फ़िक्र

फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है
जिसके लब पर,भूलेभटके ,कभी तुम्हारा  जिक्र  नहीं है
टुकड़ा दिल का ,निभा रहा है ,बस ऐसे संतान धर्म वह
हैप्पी होली या दिवाली,या फिर हैप्पी जन्मदिवस  कह
तुम्हारे ,दुःख ,पीड़ा,चिंता ,बिमारी का ख्याल नहीं है
तुम कैसे हो,किस हालत में ,कभी पूछता ,हाल नहीं है
आत्म केंद्रित इतना है सब रिश्ते नाते भुला दिए है
जिसने अपनी ,जननी तक को ,सौ सौ आंसूं रुला दिए है
कहने को है अंश तुम्हारा ,पर लगता है बदला,बदला
या फिर तुमसे ,पूर्व जन्म का,लेता है शायद वो बदला
भूल गया सब रिश्ते नाते ,बस  मैं हूँ और मेरी मुनिया
दिन भर व्यस्त कमाई करने में सिमटी है उसकी दुनिया
इतना ज्यादा ,हुआ नास्तिक,ईश्वर में विश्वास नहीं है
अहम ,इस तरह ,उस पर हाबी ,जो वो सोचे ,वही सही है
आ जायेगी ,कभी सुबुद्धि ,बैठे हो तुम आस लगाये
कोई उसको क्या समझाए ,जो कि समझना कुछ ना चाहे
तुम कितनी ही कोशिश करलो,उसको पड़ता फर्क नहीं है
फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी ,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
         गुमसुम गुमसुम प्यार

जीवन की भागभागी में,गुमसुम गुमसुम प्यार हो गया
एक साल में एकगुलाब बस ,यही प्यार व्यवहार हो गया
कहाँ गयी  वो  छेडा  छेङी , वो मदमाते ,रिश्ते चंचल
कभी रूठना,कभी मनाना ,कहाँ गई  वो मान मनौव्वल 
वो छुपछुप कर मिलनाजुलना ,बना बना कर ,कई बहाने
चोरी चोरी ,ताका झाँकी ,का अब मज़ा कोई ना जाने
एक कार्ड और चॉकलेट बस,यही प्यार उपहार हो गया
जीवन की भागा भागी में ,गुमसुम गुमसुम प्यार होगया
नहीं रात को तारे गिनना,नहीं प्रिया, प्रियतम के सपने
सब के सब ,दिन रात व्यस्त है, फ़िक्र कॅरियर की ले अपने
एक लक्ष्य है ,बस धन अर्जन ,शीघ्र कमा सकते हो जितना
करे प्यार की चुहलबाज़ियाँ ,किसके पास वक़्त है इतना
प्यार ,नित्यक्रम ,भूख मिटाने को तन की,व्यवहार हो गया
जीवन की भागा भागी में,गुमसुम गुमसुम प्यार  हो गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
        अपना अपना नज़रिया

सूरज अपने पूर्ण यौवन पर था,
रोशनी बरसा रहा था
तभी एक मुंहजोर बादल ने ,
उसे ढक  लिया
धूप ,घबरा कर ,ऐसे छुप गयी ,
जैसे अपने प्रेमी संग ,
खुलेआम ,रंगरेलियां मनाते हुए ,
पुलिस ने पकड़ लिया
एक मनचला बोला ,
ऐसा लगता है जैसे ,
किसी रूपसी प्रेयसी को ,
उसके प्रेमी ने  बाहों में कस लिया है
मुझे लगा कि किसी ,
परोपकार करते हुए ,सज्जन पुरुष को,
अराजक तत्वों के,
 तक्षक ने  डस लिया है
दार्शनिक ने कहा ,
जैसे जीवन में सुख दुःख ,
हमेशा आते ही रहते है
उसी तरह ,हर चमकते सूर्य पर ,
बादल छाते ही रहते है
झगड़ालू बोला,
इस बादल ने मेरे घर में आते,
प्रकाश को अवरुद्ध किया है
यह कार्य ,मेरे मौलिक अधिकारों के ,
विरुद्ध किया है
पसीने में तरबतर राही को,
थोड़ी सी छाँव मिली ,
तो आनंद की प्रतीति हुई
किसी बावरे कवि को,
बादल की कगारों  से निकलती ,
रश्मियों को देख कर ,
कंचुकी में से झांकते ,
यौवन की अनुभूती हुई
ये भी हो सकता है  कि संध्या ने ,
अपने प्रिय को जल्दी बुलाने के लिए ,
प्रेम की पाती लिख कर,
भेजा संदेशा है
या सूर्यलोक के सफाई कर्मियों ने ,
समय पर तनख्वाह न मिलने पर,
ढेर सा कचरा ,सूरज पर फेंक दिया ,
मुझे ऐसा अंदेशा है
ये भी हो सकता है कि ,
सूर्य के तेज से घबरा कर,विरोधी दल,
उसे काले झंडे दिखा रहे हो
और अपने अस्तित्व का ,
आभास करवा रहे हो
तभी केजरीवाल ने ,
प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलवा कर बयान  दिया,
ये केंद्र सरकार ,
बार बार बादलों को भेज कर ,
मेरे चमकीले कार्यों को ,
ढांकना चाहती है ,
इसलिए मैं राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा
कि आसमान का प्रशासन भी ,
मुझे सौंप दिया जाय ,
मै इसे दो दिन में ,ठीक कर दूंगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

Friday, February 12, 2016

   पिचत्तरवें जन्मदिवस पर

वर्ष  चौहत्तर  ऐसे  काटे
मैंने सबके सुखदुख बांटे
कुछ मित्र मिले थे अनजाने
कुछ अपने, निकले बेगाने
कोई से मन के मिले तार
कोई अपनो की पडी मार
जब थका  किसी ने दुलराया
कोई ने ढाढ़स  बंधवाया
कोई ने कर तारिफ़ जब तब
साधे अपने अपने  मतलब
कोई ने खोटी खरी  कही
मैंने हंस कर हर बात सही
कुछ रिश्तेदारी,कुछ रस्मे
कुछ झूंठे वादे ,कुछ कसमे
कुछ आलोचक तो कुछ तटस्थ
बस,यूं ही सबने रखा व्यस्त
माँ ने ममता का निर्झर बन
बरसाई आशीषें ,हर क्षण
थे प्यार लुटाते ,भाई बहन
तो दिया पिता ने अनुशासन
सहचरी ,सौम्या मिली प्रिया
जिसने हर पल पल साथ दिया
अपने में खुश सन्तान पक्ष
इच्छित सबको मिल गया लक्ष
है  आशीर्वाद साथ  माँ का
और मित्रों की शुभ आकांक्षा
ये ही मेरी संचित पूँजी
इससे बढ़ दौलत ना दूजी
जीवन गाडी, कट रहा सफ़र
चूं चरर मरर ,चूं चरर मरर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, February 7, 2016

     पुनर्वावलोकन  -अब तक की जिंदगी का 

१९४२ में,जब मैं पैदा हुआ था,
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गूँज रहा था
और जब मैं पांच वर्ष का हुआ और
मैंने बचपना और जिद करना छोड़ दिया ,
अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया
पर फिर कुछ ऐसा हुआ ,
कि देश के लोगों की जीवन पद्धति ने
एक नया मोड़ लिया
पुरानी मान्यताएं बदलने लगी
संस्कृति सिसकने लगी
पश्चिम की हवाओं ने वातावरण को
दूषित कर डाला
हमारी सोच को कलुषित कर डाला
पहले भले ही हम आजाद नहीं थे,
व्यवस्थाएं अनुशासित रही थी
रोज रोज के आंदोलन और हड़तालों से,
ग्रसित नहीं थी
आज कोंक्रीट के उगे हुए जंगलों को जब देखता हूँ,
तो याद आती है वो हरियाली ,
वो हरेभरे वृक्ष जो शीतल हवाएँ बरसाते थे
वातावरण को खुशनुमा बनाते थे
जब बोतलों में बिकता हुआ पानी देखता हूँ ,
तो कुवें से निकाला गया वो ताज़ा  जल याद आता है ,
जो कपडे से छन कर स्वच्छ हो जाता था
मिट्टी के घड़ों में संचयित कर ,
दिन भर पिया और पिलाया जाता था
अरे उन दिनों मटके रखने की जगह ,
'पिरण्डे ' को भी पूजा जाता था
लोग गर्मियों में प्याऊ लगवा कर ,
मुफ्त प्यासों की प्यास बुझा कर पुण्य कमाते थे
बढे हुए प्रदूषण को देख कर ,
याद आते है बचपन के वो दिन
जब आसमान का नीला रंग ,
स्पष्ट दमकता था
और आकाश में उगते हुए तारों को,
एक एक कर गिना जा सकता था
बिजली के प्रकाश से उज्ज्वलित
सड़के और घरों को देख कर याद आती है
उन टिमटिमाते दियों  और लालटेनों की ,
जो अँधियारे घरों को ,प्रकाशमान करते थे
और सर्दियों में ,पूरे परिवार के लोग,
अंगीठी के आसपास बैठ,
मूंगफलियां खाया करते थे
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब खाना बनाते वक़्त ,
माँ,पहली रोटी गाय के लिए बनाती थी
और बचे खुचे आटे से,
कुत्ते की रोटी बनाई जाती थी
बासी खाना खाया  नहीं जाता था
और रसोईघर को रोज धोया जाता था
मुझे वो बीते हुए दिन बहुत सताते  है
जब आज हम ,
गायकुत्ते की तो छोडो ,खुद भी ,
तीन चार दिन पुराने ओसने हुए,
फ्रिज में रखे हुए  आटे की ,
रोटियां खाते है
आज,नन्हे नन्हे बच्चों को ,
अपने झुके हुए कन्धों पर ,
भारी भारी बस्ता लादे  देख कर
अपने स्कूल के दिन याद आते है
भले ही हम टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते थे ,
हमारे बस्ते हलके होते थे
और बच्चों या उनके मातापिताओं पर
होमवर्क का कोई बोझ नहीं पड़ता  था
और बचपन हँसते , खेलते मस्ती में कटता था
समझ में नहीं आता ,
इतना बदलाव कैसे आ गया है
हम बदल गए है
हमारी मानसिकता बदल गयी है
प्रकृती बदल गयी है
जीवन की धारणाएं बदल गयी है
हम भावनाओं  के बंधन से उन्मुक्त होकर ,
ज्यादा व्यवाहरिक होते जा रहे है
संयुक्त परिवार टूटते जा रहे है
हमारी आस्थाएं दम तोड़ रही है
हम दो और हमारे दो के कल्चर ने ,
सारे रिश्ते और नातों को भुला दिया है
कहने को तो हमने बहुत प्रगति करली है,
पर इस प्रगति ने हमे रुला दिया है
पिछले चौहत्तर वर्षों में ,
मैंने दुनिया को इस तरह बदलते देखा है
कि मेरे काले बाल तो सफ़ेद हो गए ,
पर दुनिया ,जो कभी सफेद थी,
काली होती जा रही है
और  ये ही बात मुझे बहुत सता रही है 
शुभम भवतु

मदन मोहन बाहेती 'घोट
      रंगीन मिज़ाजी

दिन भर तपने वाला सूरज भी,
रोज शाम जब ढलता है ,
रंगीन मिज़ाज़ हो जाता है
और बदलियों के आँचल पर ,
तरह तरह के रंग बिखराता है
तो क्यों न हम,
अपने जीवन की,
 ढलती उम्र के सांध्यकाल में
रंगीनियाँ लाये
जाते जाते  जीवन का ,
पूरा आनंद उठायें
अंततः रात तो आनी  ही है

घोटू

Thursday, February 4, 2016

    एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा

मैं थी थोड़ी  भरी हुई सी ,मटकी,अपनी  छत पर
दिल्ली की भोली जनता सी,तुम आये झट उड़ कर
सीधी सी  टोपी  पहने , गुलबंद गले में   टांगा
मैं समझी भोला ,तुम निकले ,बड़े मतलबी कागा
सुख के सपने ,आश्वासन की ,कंकरी मुझ में डाली
मेरा पानी ऊपर आया ,तुमने प्यास   बुझाली
सोचा था अपनाओगे पर तुम सत्ता के भूखे
मेरा हाल कभी ना पूछा ,रो रो आंसू   सूखे
खांस खांस कर दिल्ली का पॉल्यूशन स्वयं बढ़ाया
और 'आड 'ईवन 'के चक्कर में जनता को उलझाया
रोज रोज झगड़े  करते,अपनी दूकान  चलाते
 मुझको कचरे से मैला कर ,बेंगलूर भग जाते
तुम झूंठे,तुम्हारे वादे और सब बातें झूंठी
भोग रहे सत्ता का सुख तुम ,मुझ को करके जूंठी
आम आदमी का रस चूंसा ,और नहीं फिर सुध ली
बची सिरफ़ छिलके सी टोपी,और तुम निकले गुठली

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Tuesday, February 2, 2016

           अपनी दिल्ली छोड़ कर

अपना मफलर ,अपनी टोपी ,अपनी दिल्ली छोड़ कर
भाग रहे बंगलूर को हो ,इलाज कराने दौड़ कर
' आड 'और 'ईवन 'चक्कर में ,दिल्ली की जनता को सता
सड़कों पर फैला कर ढेरों ,कूड़ा ,करकट , रायता
पोलल्युशन को बढ़ा गए हो ,तुम अपना मुख मोड़ कर
अपना मफलर ,अपनी टोपी,अपनी दिल्ली छोड़ कर
मुश्किल से तुम भाग रहे हो ,यह तुम्हारा  ढोंग है
खांसी का इलाज है अदरक  और शहद है,लोंग है
हाल ठीक करते हो अपना और दिल्ली बदहाल है
नहीं दूध के धुले हुए तुम,क्या ये कोई चाल है
और ठीकरा इस सबका ,औरों के सर पर फोड़ कर
भाग रहे तुम बेंगलूर ,इलाज कराने  दौड़ कर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 तुम बेगाने हो जाओगे
 
कोई बेगाने को इतना  अपनाओगे
कि अपनों से ,तुम बेगाने हो जाओगे
नौ महीने तक रखा कोख में ,पाला पोसा
सच्चे मन से ,तुमको अपना प्यार परोसा
उस माँ का भी तोड़ दिया दिल और भरोसा
बुरा भला कह ,उसको ही करते हो कोसा
बेटे ,सपने में भी कभी नहीं सोचा था ,
ऐसे हो जाओगे, इतने बदल जाओगे
कि अपनों से तूम बेगाने हो जाओगे
इतने वर्षों तक तुमको प्यारी लगती थी
वो माँ जो तुमको सबसे न्यारी लगती थी
चार दिनों ,पत्नी सुख पा,इतने पगलाए
उससे अच्छी कोई तुम्हे नज़र ना आये
प्यार सभी ही करते है अपनी पत्नी से ,
लेकिन तुम इतने दीवाने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे
अपने सारे भाई बहन का प्यार भुलाया
किया पिता ने इतना सब उपकार भुलाया
पढ़ा लिखा कर तुम्हे बनाया जिसने लायक
आज उन्ही की बातें लगती तुमको बक बक
मैं और मेरी मुनिया में सीमित कर दुनिया ,
शादी कर तुम इतने स्याने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे

मदन मोहन बाहेती;घोटू' 
       सर्दी के रंग

कोहरे से धुंधलाया ,आसमान नीला सा
सूरज का रंग भी ,पड़  गया पीला सा
गुलाबी गुलाबी सी ,सर्दियाँ पड़ने लगी
वृक्षों की हरियाली ,थोड़ी उजड़ने लगी
अलाव की लाल लाल,लपटों ने सहलाया
श्वेत बर्फ चादर ने ,सर्दी से सिहराया
सूरज के ढलने पर नारंगी हुई साँझ
रात रजाई में दुबकी,काला सा काजल आंझ
बैगनी 'प्यार घाव',सवेरे नज़र आये
सर्दी ने, देखो तो, सभी रंग बिखराये

घोटू 
           कितने दिन जीवन बाकी है

नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए ,
        नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है
नहीं किसी को कभी पता यह लग पाता है,
       कितने दिन तक ,साँसों की सरगम बाकी है
फिर भी उलझे बैठें है दुनियादारी मे ,
       परेशान है ,सोच रहे है कल ,परसों की
है कितनी अजीब फितरत इन्सां की देखो,
      कल का नहीं भरोसा ,बात करे बरसों की
मोहजाल में फंसे हुए,माया में उलझे ,
      जाने क्या क्या ,लिए लालसा भटक रहे है
अपनी सभी कमाई धन दौलत ,वैभव में ,
     रह रह कर के ,प्राण हमारे अटक रहे है
धीरे धीरे ,क्षीण हो रही ,जर्जर काया ,
      कई व्याधियों ने घेरा है, तन पीड़ित है
साथ समय के ,बदल रहा व्यवहार सभी का ,
       अपनों के बेगानेपन से मन पीड़ित है
ना ढंग से कुछ खा पाते ना पी पाते है ,
      फिर भी मन में चाह ,और हम जी ले थोड़ा
नज़र क्षीण है,याददास्त कमजोर पड़  गयी,
      लोभ मोह ने पर अब तक पीछा ना छोड़ा
पता नहीं यह मानव मन की क्या प्रकृती है,
     कृत्तिम साँसे लेकर कब तक चल  पायेगा
जिस दिन तन से उड़ जाएंगे प्राणपंखेरू ,
     हाड़मांस का पिंजरे है तन  ,जल जाएगा
तो क्यों ना जितने दिन शेष बचा है जीवन ,
     उसके एक एक पल का,जम कर लाभ उठायें
हंसी ख़ुशी से जिए ,तृप्त कर निज तन मन को,
    जितना भी हो सकता ,सब में ,प्यार लुटाएं     
सभी जानते,दुनिया में,यह सत्य अटल है,
    माटी में ही माटी का संगम बाकी है
नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए,
   नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
     मिडिया -तूने क्या क्या किया

हम सुनते है ,तुम सुनते हो,सब सुनते है ,
        तरह तरह की खबर रोज टी वी देता है
हरेक  खबर की निश्चित एक उमर होती है,
        किन्तु मिडिया उसको लम्बी कर देता है
बलात्कार ,अपहरण और मर्डर की खबरें,
       तरह तरह की रोज रोज कितनी आती है
इतना ज्यादा उन्हें उछाला पर जाता है,
      जिससे कई जरूरी खबरें  दब जाती है
कितनी न्यूज़ चेनले चलती चौबीस घंटे ,
     कितनी बार ,कहाँ से नयी खबर लाएगी
पर चौबीस घंटे कुछ ना कुछ करना ही है,
      तो फिर वो खबरों पर चर्चा  करवाएगी
कुछ जाने पहचाने नामी,चर्चित चेहरे ,
      ऐसी चर्चाओं में रोज नज़र  आते है 
 सारे के सारे बढ़ बढ़ बातें करते है ,
      एक दूसरे को गाली दे,चिल्लाते  है
  क्रिकेट  मैच जीतते ,वाह वाह होती है ,
      और हार जाते ,केप्टिन गाली खाता है
कोई चैनल सदा किसी का आलोचक है ,
      कोई चैनल ,सदा किसी के गुण गाता है
कभी दादरी वाला केस उछल जाता है ,
      कभी मालदा वाली घटना  दब जाती है
हर एक खबर के पीछे कोई भेद छुपा है,
      और कुछ खबरे दावानल सी बन जाती है
चंद्रग्रहण पर,सूर्यग्रहण पर ,घंटों घंटों ,
     ज्योतिषियों का पेनल मिल करता है चर्चा
करवा लाइव टेलीकास्ट कथा का वाचक,
         पॉपुलर बनने को करते कितना खर्चा
राजनीति की उठापटक में माहिर टी वी,
       कभी कभी सत्ताएं भी पलटा करता है
कभी किसी को बहुत उठता,बहुत गिराता ,
      सत्ता ही क्या,हर विपक्ष उससे डरता है
हुई किसी की मौत चार दिन चर्चा होती,
       बरसों बाद उखड़ते मुर्दे  गढ़े हुए है
चार दिनों में मिले  जमानत कोई को तो,
      कोई सालों यूं ही जेल में पड़े हुए है
ग्रह बदले ना बदले ,टीवी जब रुख बदले ,
      कितनो का ही भाग्य  बदल लेकिन जाता है
कोई पार्टी सत्ता से च्युत हो जाती है ,
    और किसी के हाथों में पावर  आता है
खेल मिडिया का है या फिर है पैसों का,
     कुछ भी हो,दोनों के दोनों पावरफुल है
देख मिडिया पर्सन,माइक और कैमरा ,
     अच्छे अच्छों की हो जाती बत्ती गुल है
कोई फेंकता नेता पर चप्पल या श्याही,
    पब्लिसिटी ,अच्छी खासी, पा लेता है
हरेक खबर की निश्चित एक उमर होती है,
     मगर मिडिया उसको लम्बी कर देता है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
         काटा काटी

मार काट से क्यों है ये  दुनिया  घबराती
जबकि कितनी काट ,काम में काफी आती
नाइ काटे बाल ,आदमी संवर जाएगा
दरजी काटे वस्त्र ,नया फैशन आएगा
माली काटे फूल पत्तियां,निखरे गार्डन
नेता काटे रिबिन, उसे कहते  उदघाटन
जेब किसी की कटती है वो लुट जाता है
रोज रोज किट किट से झगड़ा बढ़ जाता है
मंत्री जी वो जबसे बने ,कट रही चांदी
धन दौलत और शोहरत होती पद की बांदी
ओहदे वाले अफसर  ,काटे रोज  मलाई
कटता सदा  गरीब ,मगर  है यही सचाई
खरबूजे पर चाकू, चाकू पर खरबूजा
गिरे कोई भी,कटता  बेचारा खरबूजा
काटा काटी ने है बिगड़ा काम सुधारा
जब ना खुलती गाँठ,काटना पड़ता नाडा
नींद न आती जब रातों को काटे मच्छर
कोई ज्यादा उड़े ,काट दो तुम उसके पर
दे दो ज्यादा ढील,पतंगे कट जाती है
थोड़े बनो दबंग, मुसीबत  हट जाती है 
कुछ होते इतने जहरीले ,क्या बतलाये
जिनका काटा ,पानी तक भी मांग न पाये
मुश्किल के दिन,मुश्किल से ही कट पाते है
अपने से मत कटो, काम वो ही आते  है
कभी किसी की बात न काटो,चिढ जाएगा
बिना बात के झगड़ा करके  भिड़   जाएगा
अपना पेट काट कर ,जिन बच्चो को पाला
बुढ़ापे में ,घर से उनने , हमें  निकाला 
यूं ही किट किट में मत उलझाओ निज मन
जितना जीवन बचा ,काट दो,कर हरिस्मरण

घोटू
दाद

जो आता है मेरे मन में ,उसे ढाल कर के लफ्जों में ,
अपनी बात ग़ज़ल कह कर के ,सदा सुनाया करता हूँ
जिन्हे बात मेरी जमती है,जम कर दाद मुझे देते है ,
मगर दाद जो तुमने दी है , सदा  खुजाया करता  हूँ

घोटू
        मेरा गाँव-मेरा देश

मेरे गाँव के हर आँगन में ,बिरवा है तुलसीजी का ,
    गली गली में मीरा जी के ,देते भजन सुनाई है
हर घर एक शिवालय सा है,हर दिवार पर राम बसे ,
    कान्हा की बंसी बजती ,रामायण की चौपाई है
मंदिर से घण्टाध्वनि आती ,भजन कीर्तन होता है,
    ताल मंजीरे ,ढोलक के स्वर ,सदा गूंजते रहते है
जहां गंगा की एक डुबकी में पुण्य कमाया जाता है,
    जहां गाय को गौमाता कह  लोग पूजते रहते है
जहां पीपल ,वट वृक्ष,आंवला ,का भी पूजन होता है,
   रस्ते के पत्थर भी पूजे जाते कह  कर पथवारी
अग्नि की पूजा होती है ,दीप  वंदना  होती है ,
   हवन यज्ञ में आहुति दे ,पुण्य कमाते है भारी
गंगा जमुना का उदगम भी ,तीर्थ हमारा होता है,
  गंगाजल लोटे में भर कर ,उसकी पूजा की जाती
हम पत्थर की मूरत  में भी ,प्राण प्रतिष्ठा करते है,
   सात अगन के फेरे लेकर ,बनते है जीवनसाथी
हम सीधे सादे भोले है ,मगर आस्था इतनी है,
    उगते और ढलते सूरज को अर्घ्य चढ़ाया जाता है
जहाँ औरतें व्रत करती है, पति को लम्बी उम्र मिले,
   चन्द्रदेव के दर्शन कर के भोजन खाया   जाता है
श्राद्धपक्ष में सोलह दिन तक ,तर्पण करते पुरखों का,
   श्रद्धा से सर उन्हें नमाते ,हम उनके आभारी है
धर्म सनातन,बहुत पुरातन ,धन्य धन्य यह संस्कृती है,
   हम भारत के वासी ,भारतमाता  हमको प्यारी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'