ऐसा साज मुझे दे दो तुम
जब भी दिल के तार छिड़े तो ,
निकले मधुर रागिनी मोहक ,
जो अंतर तक को छू जाए
ऐसा साज मुझे दे दो तुम
बीती खट्टी मीठी यादों,
के सब पन्ने बिखरे बिखरे
उन्हें समेट, सजा फिर से,
जिल्दसाज ऐसा दे दो तुम
भटक रहे बादल से मन को, घनीभूत कर जो बरसा दे सूखे अपनेपन की खेती ,को नवजीवन दे, सरसा दे शुष्क पड़ी जो मन की सरिता, बह निकले ,उसमें कल कल हो
है सुनसान पड़ी यह बस्ती, दिल की, इसमें कुछ हलचल हो
इस दुनिया में बहुत त्रसित हूं
परेशान हूं, रोग ग्रसित हूं,
मेरे मुरझाए चेहरे पर
खुशियां आज मुझे दे दो तुम
जो अंतरतर तो छू जाए ,
ऐसा साज मुझे दे दो तुम
एक जमाना था जब हम भी, फूलों से महका करते थे उड़ते थे उन्मुक्त गगन में, पंछी से चहका करते थे
सूरज जैसा प्रखर रूप था , धूप पहुंचती आंगन आंगन सावन सूखे, हरे न भादौ, मतवाला था हर एक मौसम फिर से फूल खिले बासंती
फिर आए जीवन में मस्ती
खुशी भरे जीवन जीने का,
वो अंदाज मुझे दे दो तुम
जो अंतरतर को छू जाए ,
ऐसा साज मुझे दे दो तुम
मदन मोहन बाहेती घोटू