Sunday, September 11, 2011

विकास की आंधी

हमारा छोटा सा घर था,
और उस पर एक छोटी सी छत थी
जहाँ हम सर्दी में ,कुनकुनी धूप का आनंद उठाते थे
 तेल की मालिश कर ,
नंगे बदन को,
सूरज की गर्मी में तपाते थे
और गर्मी की चांदनी रातों में,
सफ़ेद चादरों पर
जब शीतल बयार चलती थी,
तो तन में सिहरन सी होती थी
हमारी हर रात मधुचंद्रिका सी होती थी
पर विकास की आंधी में,
हमारे घरों के आसपास ,
उग आई है,बहुमंजिली इमारते
और बदलने पड़  गयी है,हमें अपनी आदतें
बड़ी मुश्किलें वेसी खो गयी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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दृष्टिकोण

दृष्टिकोण
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एक बड़े बंगले में,रहते थे,
हम दो प्राणी अकेले
जैसे एक बड़े से गेरेज में पड़ी हों,
दो निरीह सी सायकिलें
तनहाइयों के साये में,
सन्नाटे हमें काटते थे
और उस बंगले में,जब डर लगता था,
हम एक दुसरे की बगलें झांकते थे
बगल के बंगले वाले,
सब रहते थे,अपने अपने में व्यस्त
कभी कभी दिखने पर,
एक खोखली सी मुस्कराहट के,
हो गये थे अभ्यस्त
बाहर सड़क पर,
आते जाते वाहनों का शोर होता था
घर के आगे की बगिया में,
हरे भरे पौधे और खिले फूलों को देख,
मन आनंद विभोर होता था
और अब हम,एक बहुमंजिली ईमारत की,
ऊपरी मंजिल पर आकर बस गए  है
और इतनी ऊँचाई पाने के बाद,
बड़े बड़े वृक्ष भी,
बौने दिखने लग गए है
सूरज  भी नीचे से उगता दिखता है
और चाँद पास से ,ज्यादा चमकीला दिखता है
नीचे सड़कों पर,रेंगते वाहनों का शोर,
सहम सहम कर हम तक आता है
और जब मन घबराता है
तो गेलरी से ,नीचे झांक लेते है
ऊपर से सब अदने नज़र आते है,
हम खुद  को इतना ऊंचा आंक लेते है
आस पास के पड़ोसियों से,
सोसायटी के फंक्शनों में,या लिफ्ट में,
हाय,हल्लो कह कर मुस्कराते है
लाफिंग क्लब में,साथ साथ हँसते हँसते,
कुछ दोस्त बन जाते है
आस पास के छोट घरों की छतों पर,
झाँकने का अधिकार हमें मिल गया है
हम आत्म गर्वित है,
हमारा दृष्टिकोण ही बदल गया है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

(यह कविता मेरे नए घर इंदिरापुरम में
शिफ्ट होने के बाद लिखी गयी है)