Friday, October 4, 2019

सीख
,
जब मैंने केनवास के जूते  पहने
घूमने जाने के लिए ,सुबह,आज
तो मेरी समझ में आये ,जिंदगी
जीने की कला के दो गहरे राज
एक तो जूता पहनते वक़्त ,जूते के
पिछले भाग में एड़ी डालने के लिए ,
ऊँगली डालने  से एडजस्ट करने पर ,
जूता ठीक से एड़ी से चिपकता है
उसी प्रकार कई बार ,कुछ कार्यों को
ठीक से संपन्न करने के लिए ,
पड़ती ऊँगली करने की आवश्यकता है
दूसरा जूते की जीभ को दबा कर
उसके मुंह को बांध से बाँधने से ,
जूते फिट रहते है
उसी तरह कुछ लोगों की जिव्हा पर
लगाम लगाने से ,
वो ज्यादा चूंचपड़ नहीं करते है

घोटू  
झिक झिक किसम का आदमी

इस तरह मुझको सताया मत करो ,
मैं  जरा झिक झिक किसम का आदमी हूँ
अदाओं से यूं रिझायां  मत करो ,
मैं  जरा आशिक़ किसम का आदमी हूँ

मेरी किस्मत में मोहब्बत ही लिखी है
नहीं करना किसी से नफरत लिखी है
भ्रमरों के मानिंद इस खिलते चमन में ,
फूल की और कलियों की सोहबत लिखी है
महक से अपनी लुभाया मत करो ,
मैं जरा भौतिक किसम का आदमी हूँ
इस तरह मुझको सताया मत करो ,
मैं जरा झिक झिक किसम का आदमी हूँ

जिस पे दिल आया उसे अपना लिया
लगन जिससे लगी ,उसको पा लिया
मैं मोहब्बत बांटता रहता हूँ  हरदम ,
बैर कोई से ,कभी  भी    ना किया
प्राण की ,की प्रतिष्ठा पाषाण में ,
मैं जरा धार्मिक किसम का आदमी हूँ
इस तरह मुझको सताया मत करो ,
मैं जरा झिक झिक किसम का आदमो हूँ

आज में जीता ,फिकर कल की नहीं है
फांका मस्ती तो मेरी आदत रही है
सुनता तो मैं ,बात सबकी ही हूँ लेकिन ,
करता वोही ,दिल जो कहता है,सही है
मैं  नहीं फ़कीर हूँ कुछ लकीरों का ,
मैं जरा मौलिक किसम का आदमी हूँ
इस तरह मुझको सताया मत करो ,
मैं  जरा झिक झिक किसम का आदमी हूँ

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
परिवर्तन

चहचहाती थी कभी जो  एक चिड़ी सी
आजकल रहने लगी है  चिड़चिड़ी सी
वो  बड़े दिल  की    बड़ी बातें सुहानी ,
हो गयी उनमे कहीं कुछ गड़बड़ी सी

करती थी जो प्यार का हरदम प्रदर्शन
हुए दुर्लभ आजकल उनके है  दर्शन
बरसती थी प्यार की जो सदा बदली
आजकल आती नज़र है बदली बदली
फूल खिलते ,हंसती जब थी फूलझड़ी सी
लगाती शिकायतों की अब झड़ी सी
चहचहाती थी कभी जो  एक चिड़ी सी
आजकल रहने लगी है  चिड़चिड़ी सी

ख़ुशी से थी खिलखिलाती जो हसीना
हुई मुद्दत ,कभी खुलकर वो हंसी  ना
किया करती ,हमें घायल ,नज़र जिसकी
लग गयी उस पर न जाने नज़र किसकी
बदन जिसका श्वेत ,थी संगमरमरी सी
उसकी आभा लगती है अब कुछ मरी सी
चहचहाती थी कभी  जो एक चिड़ी सी
आजकल रहने लगी है चिड़चिड़ी  सी

जो हमारे हृदय पर थी राज करती
आजकल है हमसे वो नाराज लगती
कभी कोमल कली सा था जो मृदुल तन
समय के संग , आ गया है  परिवर्तन
हम पे ताने मारती है वो तनी  सी ,
उखड़ी  उखड़ी दूर रहती है खड़ी सी
चहचहाती थी कभी जो एक चिड़ी सी
हो गयी है आजकल वो चिड़चिड़ी सी


मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
डांडिया पर्व -एक अनुभूति

जब हम छोटे बच्चे होते है
बड़े निश्छल और निर्विकार भाव से ,
कभी हँसते है ,कभी रोते  है
हर किसी से मुस्करा कर दोस्ती कर लेते है
दांतों पर  अंगूठा लगा ,कट्टी कर लेते है
उंगली से उंगली मिला बट्टी कर लेते है
पर बड़े होने पर ,स्वार्थ और लालच में ,
इतने ज्यादा सन जाते है
कि भाई भाई भी ,एक दुसरे के ,
दुश्मन बन जाते है
वैसे ही ये छोटे छोटे डांडिये
जिनको अपने हाथों में लिये ,
 हम किया करते  रास है
मन में ख़ुशी और उल्लास है
पर ये ही डांडिये बड़े होने पर लट्ठ बन जाएंगे
लड़ाई और झगड़े में आपस में टकराएंगे
किसी के हाथ पाँव तोड़ेगे
किसी का सर फोड़ेंगे
शोर शराबा करेंगे
खून खराबा करेंगे
बन जाएंगे एक दुसरे के दुश्मन
बतलाओ क्या अच्छा है ,
लड़ने भिड़ने वाला बड़ापन
या प्यार फैलता हुआ बचपन ?

घोटू