हरि लीला
हरि व्याप्त जग के कण कण में ,
बतलाओ हरि कहाँ नहीं है
पीड़ा हरे,शांति दे मन को ,
बस समझो तुम हरि वही है
मन हो चंगा अगर ,कठौती ,
में भी गंगा मिल जाती है
हरियाली में हरि बैठे है ,
दर्शन कर ठंडक आती है
सुबह सुनहरी धूप में हरी ,
हरी तेज है दोपहरी का
नज़र हरी की तुम पर हरदम,
हरी काम करते प्रहरी का
रूपहरी जो खिले चांदनी ,
उसमे भी हरी का प्रकाश है
पीताम्बरी छवि है हरी की ,
आम दशहरी सा मिठास है
हरी बसते है ,गाँव गाँव में,
शहरी के भी संग हरी है
हरि ऊँगली पर ,गोवर्धन सी,
ये सारी जगती ठहरी है
मुश्किल बहुत समझ पाना है,
हरी की लीला ,अति गहरी है
हरी पहाड़ी,खेती,बगिया ,
जित देखो बस हरी हरी है
हरा भरा है उसका जीवन ,
जिसके मुख पर हरी नाम है
घर की देहरी ,पर हरी बसते ,
हर घर होता हरी धाम है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
हरि व्याप्त जग के कण कण में ,
बतलाओ हरि कहाँ नहीं है
पीड़ा हरे,शांति दे मन को ,
बस समझो तुम हरि वही है
मन हो चंगा अगर ,कठौती ,
में भी गंगा मिल जाती है
हरियाली में हरि बैठे है ,
दर्शन कर ठंडक आती है
सुबह सुनहरी धूप में हरी ,
हरी तेज है दोपहरी का
नज़र हरी की तुम पर हरदम,
हरी काम करते प्रहरी का
रूपहरी जो खिले चांदनी ,
उसमे भी हरी का प्रकाश है
पीताम्बरी छवि है हरी की ,
आम दशहरी सा मिठास है
हरी बसते है ,गाँव गाँव में,
शहरी के भी संग हरी है
हरि ऊँगली पर ,गोवर्धन सी,
ये सारी जगती ठहरी है
मुश्किल बहुत समझ पाना है,
हरी की लीला ,अति गहरी है
हरी पहाड़ी,खेती,बगिया ,
जित देखो बस हरी हरी है
हरा भरा है उसका जीवन ,
जिसके मुख पर हरी नाम है
घर की देहरी ,पर हरी बसते ,
हर घर होता हरी धाम है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'