Monday, July 10, 2017

खुल जा सिम सिम 

१ 
अलीबाबा और चोर का ,किस्सा कर लो याद 
एक खजाना लग गया ,अलीबाबा के  हाथ 
अलीबाबा के हाथ ,हुई थी धन की रिमझिम 
खुले खजाना ,जब वो कहता ,खुल जा सिम सिम 
कह घोटू कवि ,भरे हुए थे ,हीरा,मोती 
वो ले आता लाद ,उसे जब जरूरत होती 
२ 
वैसे ही एक खजाना ,पास हमारे आज 
सिम सिम याने डबल सिम ,छुपा इसी में राज 
छुपा इसीमे राज ,खजाना है मोबाइल 
और इस सिम सिम से लूटो जितना चाहे दिल 
दुनिया भर का ज्ञान,सूचना सब मिल जाते  
अपनों से दिन रात करो, जी भर कर बातें 

घोटू 
मज़ा उठालो जीवन के हर पल का


जब होता है समय ,हमें ना मिलती फुरसत ,
जब होती है फुरसत ,बचता समय नहीं है 
इसीलिए हम इस जीवन के एक एक पल का,
पूर्ण रूप से मज़ा उठाले, यही सही  है 
जब तक दूध पड़ा था ताज़ा ,पी ना पाए,
वक़्त गुजरने पर फट जाता या जम जाता 
फटे दूध को तुम पनीर कह मन बहला लो ,
जमे दूध में ,कभी दही सा स्वाद न आता 
मित्रों ,समय हुआ करता है एक पतंग सा ,
जरा ढील दी ,छूटा ,हाथ नहीं आता है 
गयी हाथ से निकल डोर और पतंग उड़ गयी ,
साथ पतंग से मांजा भी सब उड़ जाता है 
जब तक तन में शक्ति थी तुम जुटे काम में,
रत्ती भर भी मज़ा उठाया ना जीवन का 
अब जब थोड़ा वक़्त मिला तो बची न शक्ति ,
ढीला ढाला पड़ा हुआ हर पुर्जा तन का 
हरे  आम होते  है  खट्टे  और सख्त भी,
पक जाने पर ,हरे आम ,पीले पड़ जाते 
सही समय पर उसका मीठा स्वाद उठालो,
अगर देर की ,तो फिर आम सभी सड़ जाते 
जब हो लोहा गरम चोंट तुम तब ही मारो ,
ठन्डे लोहे पर होता कुछ असर नहीं है 
इसीलिये हम इस जीवन के एक एक पल का 
,पूर्ण रूप से मज़ा उठाले,यही सही है 
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
ऐसा भी होता है 

एक कोने में पलंग के ,हम रहते मजबूर 
उस कोने में पलंग के ,पत्नी सोती दूर 
पत्नी सोती दूर ,नींद ना आती ढंग से 
एक रात करवट बदली,वो गिरी पलंग से
तबसे मुझसे लिपटी चिपटी वो सोवे है  
हर मुश्किल का अंत सदा अच्छा होवे है 

घोटू 
वो पुराना जमाना 

आज जब जीवन,
 बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है 
हमें रह रह कर ,
वो पुराना जमाना याद आ रहा है 
तब जब न सर्फ़ था ,न एरियल था ,न टाइड था 
बस सिर्फ  एक साबुन सनलाइट  था ,
जिससे  घर भर के सारे कपडे धुला करते थे 
और कुछ लोग उससे नहा भी लिया करते थे 
वैसे नहाने के लिए ,लाइफबॉय की लाल बट्टी 
आया करती थी काम 
या फिर कुछ लोग काम में लेते थे जय और हमाम 
वैसे उन दिनों  लक्स साबुन भी पॉपुलर था ,
जिसे विज्ञापन सिने तारिकाओं के सौंदर्य का 
रहस्य बतलाते थे 
भले ही उससे डेविड,शेट्टी और ओमपूरी भी नहाते थे 
बचे हुए साबुन की चीपटों से ,
शौच के बाद हाथ साफ़ किये जाते थे 
वैसे इस काम के लिए ,मिट्टी और राख  ,
काम में लिए जाते थे 
औरते,काली मिटटी और दही मिला कर ,
सर के बालों को धोने के लिए काम में लाती थी 
और मेकअप के लिए अफगान स्नो लगाती थी 
न तरह तरह के शेम्पू होते थे ,न कंडीशनर थे 
सिर्फ ब्राह्मी आंवला तेल ,लगाते सर पर थे 
न परफ्यूम थी या सेंट या डियो थे 
लोग कान में रखते इत्र के फुहे थे 
उन दिनों कूलर और ए सी नहीं होते थे 
रात को लोग ,खुली छतों पर सोते थे 
गर्मी में हाथ से पंखा डुलाते थे 
और गर्मी से निजात पाते थे
 मटके और सुराही का पानी पीते थे 
और खुश होकर जीवन जीते थे 
न कोकोकोला था ,न पेप्सी थी ,
न थम्सअप का जोश था 
फिर भी सबके मन में संतोष था 
थोड़ी सी पगार और बहुत बड़ा परिवार 
फिर भी ख़ुशी ख़ुशी लेते थे जीवन गुजार 
छोटा भाई,बड़े भाई के छोटे हुए कपडे पहनता था 
टीवी के सीरियल नहीं थे ,
दादी,नानी की कहानियों से मन बहलता था 
रोज दाल रोटी खाते थे ,
बस कभी कभी ही पकवान छनते  थे 
त्योंहारों पर ही ,
पूरी और पूवे बनते थे  
पिज़्ज़ा,पास्ता या बर्गर 
या फिर दो मिनिट में बनने वाले नूडल 
लोग इन सबके नाम से भी अनजान थे 
सीधीसादी  जिंदगी थी,भोले भाले  इंसान थे 
पर जबसे इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने डेरा डाला है 
नई नई ब्रांडों के चक्कर ने ,
सारा बजट ही बिगाड़ डाला है 
हर काम के लिए ,अलग अलग प्रोडक्ट ,
और अलग अलग ब्रांड आ गए है 
विज्ञापन के बल पर लोगों के ,
दिलो दिमाग पर छा गए है 
ब्रांडेड चीजों का उपयोग ,
एक स्टेटस सिम्बल बन गया है 
सब लोग खोजते है,क्या नया है 
इसी चक्कर में चीजों  के दाम,
 आसमान पर चढ़ गए है 
 खरचे  बेहताशा बढ़ गए है 
 मंहगी वस्तुए ,लोगो की पसंद हो  गयी है 
और जबसे ये माल खुल गए है,
छोटी दुकाने बंद हो गयी है 
चार आने वाली चाट ,बड़े बड़े रेस्टारेंट में 
चालीस रूपये की मिलती है 
और फिर भी खरीदने के लिए
 लोगों की लाइन लगती है 
देखिये ,कैसे दिन आ रहे है 
लोग जेब कटवा कर भी मुस्करा रहे है 
जीवनशैली का ये परिवर्तन ,
हमे कहाँ से कहाँ ले जा रहा है 
मुझे आज फिर वो पुराना जमाना याद आरहा है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'