Monday, August 7, 2023

जमाना कैसा आया रे 

रोटी पो पो आंखें फूटी ,यह कहती थी दादी 
और रसोई में अम्मा ने भी सारी उम्र बिता दी 
किंतु आज की महिलाओं को है पूरी आजादी स्विगी टेलीफोन किया, मनचाही चीज मंगा दी 
या फिर होटल में जाकर के खाना खाया रे जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे

बड़ी सादगी से रहते थे ,बूढ़े बड़े हमारे 
गर्मी पड़ती,खुली हवा में छत पर सोते सारे लालटेन घर रोशन करती, ना बिजली पंखा रे
अब तो हर कमरे में पंखा और ऐसी चलता रे प्रगति में जीवन कितना आसान बनाया रे 
जमाना कैसा होता था ,जमाना कैसा आया रे

जीवन की शैली मे देखो आया कितना अंतर 
पहले कुए का पानी था ,अब बोतल में वाटर लकड़ी से चूल्हा जलता था अब है गैस का बर्नर 
पहले खाते थे हम मठरी,अब खाते हैं बर्गर खानपान में अब कितना परिवर्तन आया रे 
जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे

 पहले चिट्ठी पत्री होती, रोज डाकिया लाता टेलीग्राम कभी आता तो सारा घर घबराता टेलीफोन अगर हो घर में स्टेटस कहलाता 
अब तो घर-घर ,सबके हाथों मोबाइल लहराता 
साथ बात के, फोटो भी सबका दिखलाया रे जमाना कैसा होता था जमाना कैसा आया रे

मिट्टी वाले घर होते थे पुते हुऐ गोबर में 
सात आठ बच्चे होते थे रौनक रहती घर में 
तड़क भड़क से दूर ,सादगी रहती जीवन भर में 
पास पड़ोसी सदा साथ थे सुख दुख के अवसर में 
फ्लैट संस्कृती ने शहरों की,सभी भुलाया रे
जमाना कैसे होता था, जमाना कैसा आया रे

न तो कार ना स्कूटर थी ,पैदल आना जाना 
एक थाली में दाल और रोटी बड़े प्रेम से खाना छोटी एक बजरिया जिसमे सब कुछ था मिल जाना
आसपास थे पेड़ ,तोड़कर आम और जामुन खाना 
माल संस्कृति ने सबका ही किया सफाया रे जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे 

नहीं रहे अब प्रेम पत्र वह खुशबू वाले प्यारे 
मोती जैसे हर अक्षर को जाता था चूमा रे 
अब तो चैटिंग डेटिंग होती, संग करते घूमा रे
घूंघट उठा, देखना चेहरा , ये थ्रिल नहीं बचा रे शादी पहले लिव इन ने भट्टा बैठाया रे 
जमाना कैसा होता था, जमाना कैसा आया रे

मदन मोहन बाहेती घोटू 
बढ़ती उम्र 

बढ़ने लगती है उमर ,बुढ़ापा जब पीछे पड़ जाता है 
तन में तनाव जब घट जाता,मन में तनाव बढ़ जाता है

जब पूंजी जमा जवानी की , हाथों से खिसकने लगती है 
मंदिम होती मन की सरगम और सांस सिसकने लगती है 
हरदम उछाल लेने वाला ,दिल ठंडी सांसे भरता है 
इंसान परेशान हो जाता ,घुट घुट कर जीता मरता है 
रह रह कर उसे सताता है, ऐसा बुखार चढ़ जाता है 
बढ़ने लगती है उमर ,बुढ़ापा जब पीछे पड़ जाता है 

कृषकाय आदमी हो जाता, धीरज भी देता साथ नहीं 
जो कभी जवानी में होती ,रह जाती है वह बात नहीं 
महसूस किया करता अक्सर है वह अपने को ठगा ठगा 
विचलित रहता, ना रख सकता, वह किसी काम में ध्यान लगा 
बढ़ जाती शकर रक्त में है, ब्लड प्रेशर भी चढ़ जाता है 
बढ़ने लगती है उमर बुढ़ापा जब पीछे पड़ जाता है

मदन मोहन बाहेती घोटू 
तेरी छुअन 

तूने मुझको छुआ ऐसे 
आने लगे प्रेम संदेशे
जब भी तू मुझको छूती है ,सिहरन होती तन में 
पता नहीं क्या हो जाता पर कुछ कुछ होता मन में 
वातावरण महक जाता है फूल खिले हो जैसे 
तूने मुझको छुआ ऐसे 
आने लगे प्रेम संदेशे 
एक शिला का पत्थर था मैं, तूने मुझे तराशा 
गढ़ दी मूरत, लगी बोलने ,मधुर प्रेम की भाषा लगता है जीवंत हो गया प्यार हमारा जैसे 
तूने मुझको छुआ ऐसे 
आने लगे प्रेम संदेशे 
मैं था बीज, धरा बन तूने ,है इसको पनपाया 
तेरी देख रेख में ही मैं आज वृक्ष बन पाया 
वरना पुष्पित और पल्लवित मैं हो पाता कैसे 
तूने मुझको छुआ ऐसे 
आने लगे प्रेम संदेशे 
तेरे प्रति मेरी दीवानगी ,दिन दिन बढ़ती जाती 
मन में तू छाई रहती है ,मुझे नींद ना आती 
तुझ को लेकर ख्वाब बुना करता मैं कैसे-कैसे 
तूने मुझको छुआ ऐसे 
आने लगे प्रेम संदेशे 
जब से तुम मेरे जीवन में आई दिल के पास  
तुमने बदल दिया मेरा भूगोल और इतिहास 
बदल गए हालात रहे ना पहले जैसे 
तूने मुझको छुआ ऐसे
आने लगे प्रेम संदेशे 

मदन मोहन बाहेती घोटू 
दिल्ली 6 का खाना

स्वाद के मारे सब प्यारों का स्वागत करती देहली है 
दिल्ली 6 के खान-पान की शान बहुत अलबेली है

सबको बना दिया दीवाना है इसके पकवानों ने मुंह पानी भरती चाटों ने ,मिठाई की दुकानों ने प्यारी है रसभरी जलेबी सबके मन को ललचाती 
घंटे वाले सोहन हलवे की याद बहुत है तड़फाती खुरचन ,बाजार किनारी की,है चीज सभी के चाहत की 
जगह-जगह सर्दी में मिलती, चाट सुहानी दौलत की 
गली-गली में बहुत चाट के दोने जाते चाटे है
गली पराठे वाली के ,कितने मशहूर पराठें हैं 
स्वाद कंवरजी दाल मोठ और अमृत भरी इमरती है 
नटराज के भल्ले आलू टिक्की सबको भाया करती है 
नागोरी पूरी और हलवा ,गरम बेडमी स्वाद भरी और मटर कुल्चों के ठेलों पर रहती है भीड़ बड़ी खस्ता और आलू की सब्जी, छोले और भटूरे हैं कांजी बड़े नहीं खाए तो सारे स्वाद अधूरे हैं 
हलवा करांची चेनामल का ,इसकी अपनी रंगत है ज्ञानी ,रबड़ी और फ़लूदा,खाना सब की चाहत है खान-पान से दिल्ली 6 का, बड़ा पुराना नाता है पेट भले ही भर जाता मन लेकिन न भर पाता है नाम पुरानी दिल्ली ,लगती हरदम नयी नवेली है दिल्ली 6 के खानपान की शान बहुत अलबेली है

मदन मोहन बाहेती घोटू