Saturday, December 7, 2019

गाली गलोच -अपनी अपनी सोच

आप भी क्रुद्ध है
सामनेवाला भी क्रुद्ध है
हो रहा वाकयुद्ध है
कुछ गालिया वो दे रहा है
कुछ गलियां आप दे रहे है
न लट्ठ चले न बंदूक दगी
न खून बहा न चोंट लगी
पर दोनों ही पक्षों के मन का ,
निकल गया गुबार
बस  की थोड़ी बकझक है
ये लड़ाई कितनी अहिंसक है

ये गाली देने की विधा भी निराली है
किसी को जानवर शेर कहो तो तारीफ़ ,
और गधा कहो तो गाली है
हमारी समझ में ये नहीं आता है
लक्ष्मीजी जिस पर सवारी करती है ,
किसी को उनका वाहन उल्लू बतलाना
गाली क्यों कहलाता है

भावनाओं  का गुबार छटता है ,
आँखों के रास्ते ,
जब गम सारे आंसूं बन बह जाते है
और दुःख होते है सफा
इसी तरह मन में गुबार गुस्से का ,,
अगर तुमको है हटाना ,
तो उसे दो जी भर  कर गालियां ,
जिससे तुम हो ख़फ़ा

शराफ़त के चिंदे चिंदे करनेवाली ,
उनकी जुबान
जब उगलने लगती है आग
तो समझलो बंदा,
अपनी असलियत पर आ गया है
उसके मुंह पर ,
गालियों का गुबार छा गया है

हमारे गाँवों की तहजीब में भी ,
इतनी बस गयी है ये गालियां
कि शादियों में भी समधियों  को ,
गाकर सुनाई जाती है गालियां

ये जरूरी नहीं कि गालियां ,
चिल्ला कर ही दी जाये ,
नजाकत और नफासत से भी
गाली देने का है तरीका
'लुच्चा कहीं का '

एक प्रश्न बार बार मेरे जहन में मंडराता है
मेरी समझ में नहीं आता है
साला हो साली
कैसे बन गए गाली
ये तो बड़ा मनभावना नाता है
फिर गाली क्यों कहलाता है
ये और ऐसे ही कुछ शब्द ,
हो गए इतने आम है
कि बन गए तकियाकलाम है
हम सुनते रहते है लोग खुद ,
खुद को ही गाली दिया करते है ऐसे
कि यार हम साले भी  बेवकूफ है कैसे?


मदन मोहन बाहेती 'घोटू '