चकमक या बुझता अंगारा
जवानी में हमारे जिस्म,
चकमक पत्थर की तरह होते है ,
जिनके आपस में टकराने से ,
चिंगारियाँ निकलती है
और आग जलती है
लेकिन बुढ़ापे में ,हो जाते है
उस बुझते हुए कोयले की तरह
जिनके ऊपर चढ़ी रहती है,
राख की सतह
जो कभी कभी हवा के झोंके के आने पर
थोड़ी सी उड़ जाती है
और तब बुझते हुए अंगारों की ,
थोड़ी सी दहक नज़र आती है
जो आज भी ,
अपनी तपिश का दम भरती है
अरे गुलाब की सूखी पखुड़ियों में भी ,
थोड़ी खुशबू हुआ करती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'