एक हरी नाजुक पत्ती थी ,
खुली हवा में इठलाती थी
नीलगिरी के पर्वत पर वह ,
मुस्काती थी,इतराती थी
हराभरा सुन्दर प्यारा था ,
उसका रूप बड़ा मतवाला
प्रेमी ने दिल जला दिया तो,
जल कर रंग हो गया काला
उस काया में अरमानो का ,
अब भी रक्त जमा लगता है
जो कि गरम पानी में घुलमिल,
चाय का प्याला बनता है
उसका स्वाद बड़ा प्यारा है,
रोज मोहती है सबका मन
औरो को सुख देना ,उसने,
बना लिया है अपना जीवन
और उसकी एक और बहन थी,
हरी भरी ,नाज़ुक ,सुन्दर सी
लोग उसे मेंहदी कहते थे ,
पाने प्यार किसी का तरसी
उसकी भी तक़दीर वही थी ,
गयी इश्क़ में वो भी मारी
प्यार उसे भी रास न आया ,
यूं ही कुचली गयी बिचारी
वो टूटी ,उसका दिल टूटा ,
हाल हुआ यों दीवानो सा
गुमसुम पिसी पिसी काया में,
रक्त छुपा है अरमानो का
उसकी दबी कामना अब भी ,
साथ किसी का जब पाती है
गोर हाथों में रच कर के ,
रंग गुलाबी ले आती है
हरी भरी इन दो बहनो को,
साथी मिल ना पाया मन का
तो औरों को सुख देना ही ,
लक्ष्य बना इनके जीवन का
परम सनेही ,दोनों इनका ,
संग सभी को सुख पहुंचाता
एक चुस्ती फुर्ती देती है ,
स्वाद रोज जिसका मन भाता
और दूसरी ,हाथों में सज,
सुंदरता की शान बढ़ाती
शादी और सभी पर्वों पर ,
हाथ सुहागन के रच जाती
इनका जो जीवन अपूर्ण था ,
उसे पूर्ण ये कर लेती है
होठों या हाथों पर लग कर ,
मन में खुशियां भर लेती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'