Monday, October 3, 2011

हम नूतन घर में आयें है

हम नूतन घर में आये है
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नए पडोसी,नयी पड़ोसन
नया चमकता सुन्दर आँगन
नूतन कमरे और वातायन
      ये  सब मन को अति भाये है
       हम नूतन घर में आये है
कोठी में थे,बड़ी शान में
थे जमीन पर ,उस मकान में
आज सातवें आसमान में
        हमने निज पर फैलायें है
        हम नूतन घर में आये है
प्यारा दिखता उगता सूरज
सुदर लगता ढलता सूरज
धूप,रोशनी,दिन भर जगमग
        नवप्रकाश में मुस्काये है
        हम नूतन घर में आये है
तरणताल में नर और नारी
गूंजे बच्चों की किलकारी
 क्लब,मंदिर,सुख सुविधा सारी
          पाकर के हम हर्शायें है
          हम नूतन घर में आये है

झरने,फव्वारे खुशियों के

शीतल,तेज हवा के झोंक

ताक झांक करने के मौके
        इस ऊंचे घर में पायें है
     
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
(यह  कविता मेरे ओरंज काउंटी में
 आने के उपरान्त लिखी गयी है)

उस सर्दी की सुबह

उस सर्दी की सुबह
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सर्दी की देर सुबह,
जवान होती हुई कुनकुनी धूप'
अपने विकसते यौवन की ऊष्मा की,
 प्रखरता बिखरा रही थी
और सामनेवाली छत पर,
एक सद्यस्नाना सुमुखी,
अपने गीले बालों को
धूप में
सुखा रही थी
उसके श्यामल श्यामल केश,
उसके चन्द्र मुख पर,
कभी बादल से छाते थे,
कभी हट जाते थे
और रह रह कर'
उस छत पर,
पूनम के चाँद की छवि'
नज़र आ रही थी
पास की एक छत पर,
एक किशोर लड़का,
हाथों में लिए हुए किताब,
इधर उधर झांक रहा था
और दूसरी छत पर खड़ी,
जवान होती हुई लड़की को,
कनखियों से ताक रहा था
दूसरी छत पर,
रस्सी की तनी हुई तनी पर,
एक महिला,तनी तनी सी,
धुले हुए कपडे सुखा रही थी
हवा के प्रवाह से,
उसकी धुली हुई छोटी सी अंगिया,
बार बार उड़ कर गिर जाती थी,
और वह उसे,
सूखती साड़ी के नीचे दबा  रही थी
मै इन अद्भुत नजारों को,
देखने में मस्त था,
मगर घर के चौके से,
मक्की की रोटी और सरसों के साग की ,
सोंधी सोंधी खुशबू आ रही थी
मैंने आँखों का स्वाद छोड़ा,
और जिव्हा का स्वाद पाने के लिए,
रसोईघर की ओर दौड़ा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'