आया बुढ़ापा -बिछड़े साथी
कहते जब वक़्त बुरा आता
साया भी साथ छोड़ जाता
ये ही सब गुजरी ,मेरे संग
जब देख बुढ़ापे के रंग ढंग
मेरे अंगों ने रंग बदला
कुछने छोड़ाऔर मुझे छला
वो जो थे मेरे बालसखा
जिनको मैंने सर चढ़ा रखा
जीवन भर जिनका रखा ख्याल
की सेवा अच्छी ,देखभाल
वो भूल गये सब नाते को
और आता देख बुढ़ापे को
उनने रंग बदला ,बुरे वक़्त
उनका सफ़ेद हो गया रक्त
जो काले थे और मतवाले
हो गए श्वेत अब वो सारे
रंग बदल ,बताते है ये सब
ये बूढा जवां नहीं है अब
मन को लगता है ठगा ठगा
जब अपनों ने दे दिया दगा
वे परम मित्र कुछ बचपन के
जो सदा रहे प्रहरी बनके
मेरे मुख में था वास किया
मेरे संग संग हर स्वाद लिया
जैसा जब जब भी हुआ वक़्त
जो कुछ भी पाया नरम,सख्त
हमने मिलजुल कर, था काटा
आपस में स्वाद ,सभी बांटा
जो दोस्त ,सखा ,हमराही थे
मेरे मजबूत सिपाही थे
उन सबकी भी हिल गयी जड़ें
जब वृद्ध उमर के पैर पड़े
वह शान ,अडिगता वीरोचित
अब नहीं बची उनमे किंचित
कुछ टूट गए ,कुछ है जर्जर
मैं नकली दांतो पर निर्भर
वैसे ही बचपन की साथी
दो आँखें प्यारी ,मुस्काती
जिनमे मैंने ,देखे सपने
और रखे बसा कर थे अपने
देखा जो बुढ़ापा ,घबराई
अब है धुंधलाई ,धुंधलाई
वह तनी त्वचा ,मेरे तन की
चिकनी और कोमल ,मख्खन सी
पर जब आयी वृद्धावस्था
उसकी भी हालत है खस्ता
वह जगह जगह से सिकुड़ गयी
झुर्री बन कर के उभर गयी
तो बचपन के साथी जितने
जिन पर हम गर्वित थे इतने
उनने जो बुढ़ापे को देखा
उसके आगे माथा टेका
वो सब जो मित्र कहाते है
व्यवहार विचित्र दिखाते है
अपनों का रंग बदलता है
बस मन को ये ही खलता है
बेटी बेटे ,नाती ,पोते
जो सगे तुम्हारे है होते
बूढा होता जब हाल जरा
वो भी ना रखते ख्याल जरा
व्यवहार सभी का बदलाया
मैंने भी त्यागी मोह माया
हिल गए दांत ,मैं नहीं हिला
ना ही बालों सा रंग बदला
आँखों जैसा ना धुंधलाया
और ना ही त्वचा सा झुर्राया
सब रिश्ते नाते गया भूल
और परिस्तिथि केअनुकूल
समझौता कर हालातों से
लड़ कर अपने जज्बातों से
अपने मन माफिक ,ठीक किया
खुश रह कर जीना सीख लिया
कोई की भी परवाह नहीं
अब रहे अधूरी ,चाह नहीं
मस्ती से खाता पीता हूँ
इस तरह बुढ़ापा जीता हूँ
मदन मोहन बाहेती'घोटू '
कहते जब वक़्त बुरा आता
साया भी साथ छोड़ जाता
ये ही सब गुजरी ,मेरे संग
जब देख बुढ़ापे के रंग ढंग
मेरे अंगों ने रंग बदला
कुछने छोड़ाऔर मुझे छला
वो जो थे मेरे बालसखा
जिनको मैंने सर चढ़ा रखा
जीवन भर जिनका रखा ख्याल
की सेवा अच्छी ,देखभाल
वो भूल गये सब नाते को
और आता देख बुढ़ापे को
उनने रंग बदला ,बुरे वक़्त
उनका सफ़ेद हो गया रक्त
जो काले थे और मतवाले
हो गए श्वेत अब वो सारे
रंग बदल ,बताते है ये सब
ये बूढा जवां नहीं है अब
मन को लगता है ठगा ठगा
जब अपनों ने दे दिया दगा
वे परम मित्र कुछ बचपन के
जो सदा रहे प्रहरी बनके
मेरे मुख में था वास किया
मेरे संग संग हर स्वाद लिया
जैसा जब जब भी हुआ वक़्त
जो कुछ भी पाया नरम,सख्त
हमने मिलजुल कर, था काटा
आपस में स्वाद ,सभी बांटा
जो दोस्त ,सखा ,हमराही थे
मेरे मजबूत सिपाही थे
उन सबकी भी हिल गयी जड़ें
जब वृद्ध उमर के पैर पड़े
वह शान ,अडिगता वीरोचित
अब नहीं बची उनमे किंचित
कुछ टूट गए ,कुछ है जर्जर
मैं नकली दांतो पर निर्भर
वैसे ही बचपन की साथी
दो आँखें प्यारी ,मुस्काती
जिनमे मैंने ,देखे सपने
और रखे बसा कर थे अपने
देखा जो बुढ़ापा ,घबराई
अब है धुंधलाई ,धुंधलाई
वह तनी त्वचा ,मेरे तन की
चिकनी और कोमल ,मख्खन सी
पर जब आयी वृद्धावस्था
उसकी भी हालत है खस्ता
वह जगह जगह से सिकुड़ गयी
झुर्री बन कर के उभर गयी
तो बचपन के साथी जितने
जिन पर हम गर्वित थे इतने
उनने जो बुढ़ापे को देखा
उसके आगे माथा टेका
वो सब जो मित्र कहाते है
व्यवहार विचित्र दिखाते है
अपनों का रंग बदलता है
बस मन को ये ही खलता है
बेटी बेटे ,नाती ,पोते
जो सगे तुम्हारे है होते
बूढा होता जब हाल जरा
वो भी ना रखते ख्याल जरा
व्यवहार सभी का बदलाया
मैंने भी त्यागी मोह माया
हिल गए दांत ,मैं नहीं हिला
ना ही बालों सा रंग बदला
आँखों जैसा ना धुंधलाया
और ना ही त्वचा सा झुर्राया
सब रिश्ते नाते गया भूल
और परिस्तिथि केअनुकूल
समझौता कर हालातों से
लड़ कर अपने जज्बातों से
अपने मन माफिक ,ठीक किया
खुश रह कर जीना सीख लिया
कोई की भी परवाह नहीं
अब रहे अधूरी ,चाह नहीं
मस्ती से खाता पीता हूँ
इस तरह बुढ़ापा जीता हूँ
मदन मोहन बाहेती'घोटू '