Thursday, July 11, 2019

कॉम्पिटिशन

समझ न पड़ता ,किस रस्ते पर ,आज जमाना आमादा है
काम  भले ही कम होता है ,पर कॉम्पिटिशन  ज्यादा  है
कल बीबीजी का खत आया ,दो पन्नो में ,सौ अक्षर थे
उनमे भी आधे से ज्यादा ,प्यारे प्रियतम या डिअर थे
उनकी एक मैरिड बहन है ,हुआ बरस भर ही शादी को
मगर  चीन से लड़ने के हित  बढ़ा रही है आबादी  को
तो मेरी उन सालीजी और बीबी में कॉम्पिटिशन  है
किसका पति ज्यादा अच्छा ,किसमें लेटर लिखने का फ़न है
सौ बार भले ही नाम हमारा लिखदो पर लम्बा हो लेटर
अबके से मैं ही जीतूंगी ,अबके से हारेगी सिस्टर
तो अब बढ़ गयी भैया ,कॉम्पिटिशन तगड़ा होगा
दूर तमाशा देखे मुर्गी ,अब मुर्गो में झगड़ा होगा
मैंने साफ़ लिख दिया उनको ,जो तुम झगड़ो चीज चीज में
तुम जानो और काम तुम्हारा जाने मैं क्यों पडूँ बीच में
आज बात लेटर की ही है ,जाने कल बाजी लग जाए
देखें उनमे अब से पहले ,मौसी किसको कौन बनाये
बात औरतों की है भैया कौन खबर कल फिर बढ़ जाए
वो जीते जो सबसे पहले ,फूटबाल की टीम बनाये
फिर भी बात मान बीबी की ,लम्बा खत लिखने बैठा हूँ
देती दूध गाय की लात सहूंगा ,बनिए का बेटा हूँ
क्षमा कीजिये श्रीमती जी ,यदि लेटर में कुछ गलती है
क्योंकि लम्बा खत लिखना है ,इसीलिये कविता लिख दी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
दो सौ दिन और दो सौ रातें


मुझको छोड़ अकेला घर में
गयी परीक्षा के चक्कर में
बीबीजी ने बी ए कर लिया ,पर आने का नाम नहीं था
इम्तहान मेरे धीरज का ,ये उनका इम्तहान नहीं था

उनके मन में डिग्री पाने की बस एक चाह थी केवल
मैंने उन्हें केजुअल छुट्टी ,दी थी एक माह की केवल
लेकिन बार बार एक्सटेंशन को उनने अप्लाय कर दिया
मेरे सभी तार और चिट्ठी ,को बस नो रिप्लाय  कर दिया
और कैजुअल छुट्टी को जब ,अर्नलीव  उनने कर डाला
एक बार यूं लगा पड़ गया है मेरी किस्मत पर ताला
मुझे न सिर्फ विरह की पीड़ा ,खाने की भी तो दिक्कत थी
सूना सूना घर लगता था  चली गयी घर की रौनक थी
लेकिन तीर धनुष से छूटा ,लौट आना आसान नहीं था
इम्तहान मेरे धीरज का ,ये उनका इम्तहान नहीं था

गए राम वनवास मगर क्या वो सीता को छोड़ सके थे
पांडव गलने गए ,द्रौपदी से पर क्या मुख मोड़ सके थे
किसको कौन छोड़ता है जी ,रावण जब सीता ले भागा
हुआ भयंकर युद्ध ,राम ने ,अरे समंदर भी था लांघा
लेकिन मेरा धीरज देखो ,देखो मेरी मर्यादा  को
रहा अकेला बिन बीबी के ,सात माह से भी ज्यादा को
सात माह किसको कहते है ,दो सौ दिन और दो सौ रातें
जी हाँ मैं इसका सबूत हूँ ,मैंने स्वयं अकेले काटे
सच बतलाना मुझको क्या यह ,मेरा त्याग महान नहीं था
इम्तहान मेरे धीरज का ,ये उनका इम्तहान नहीं था

कोई मेरे दिल से पूछे ,कैसे महीने सात गुजारे
मैं उन बिन कितना तड़फा हूँ ,रात गुजारी गिन गिन तारे
एक एक दिन महीने सा था ,बरस बरस सी रात लगी थी
प्राणप्रिया बिन जिया ,जिंदगी मुझको बड़ी अनाथ लगी थी
यही ख़ुशी है ,इस जुदाई में ,थोड़ा पैसा जोड़ सका हूँ
उनकी धमकी से न डर सकूं ,खुद को ऐसा मोड़ सका हूँ
वैसे भी मैं रहा लाभ में ,बनिए का  बेटा हूँ भाई  
गयी अकेली ,ब्याज सहित वो ,दो होकर के वापस आयी
यही मिला है फल धीरज का ,इसमें भी नुक्सान नहीं था
इम्तहान मेरे धीरज का ,ये उनका इम्तहान नहीं था

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '