Thursday, October 1, 2020

कोरोना का उधम

 कोरोना वाइरस ,करे उधम
कर रखा नाक में सबकी दम  

ये कई रंग दिखलाये हमे
ये तरह तरह से सताये हमें
कभी खांसी कभी जुकाम करे
ये सबकी नींद हराम करे
ये सांस सांस में तंग करे
कभी खुशबू आना बंद करे
कभी ये बुखार में तड़फाये
कभी ऑक्सीजन को तरसाये
ये तरह तरह के ढाये सितम
कर रखा नाक में सबकी दम

इससे बचने की मजबूरी
तुम रखो बना सबसे दूरी
मुंह और नाक पर मास्क रखो
सेनेटाइजर ,सब पर छिड़को
मत 'हैंड शेक 'का करो 'ट्राय '
दूरी से नमस्ते ,बाय  बाय
जहाँ भीड़भाड़ हो जाना नहीं
बाहर का खाना ,खाना नहीं
घर में घुस ,बैठे रहो हरदम
कर रखा नाक में सबकी दम

बंद मनना अब सब त्योंहार
ना शादी ब्याह में भीड़भाड़
बंद है बाजार ,दुकाने सब
होटल सारे ,मयख़ाने सब
अब झाड़ू पोंछा ,सब घर का
खुद करना ,काम न नौकर का
ऑफिस का काम करो घर से
ना  निकलो ,कोरोना  डर  से
ये अब जल्दी न सकेगा थम
कर रखा नाक में सबकी दम

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
बढ़ती हुई उमर के संग संग

बढ़ती हुई उमर के संग संग ,दिल के दर्द बदल जाते है
धुंधली नज़रों संग नजरिया और सन्दर्भ बदल जाते है

बाहर सख्त नारियल ,अंदर ,कोमल गरी नज़र आती है
बुढ़िया होती सी बीबी भी ,मुझको परी नज़र आती है
उसकी खोटी खोटी बातें मुझको खरी नज़र आती है
हरेक विषय में ,वो अनुभव की ,गठरी भरी नज़र आती है
कहती औरत नहीं बदलती ,लेकिन मर्द बदल जाते है
बढ़ती हुई उमर के संग संग ,दिल के दर्द बदल जाते है

उसके प्रति ,मेरे मन में अब ,उमड़े प्यार और भी ज्यादा
मैं हूँ रखने लगा आजकल ,उसका ख्याल ,और भी ज्यादा
एक दूजे संग ,वक़्त हमारा ,कटता  यार ,और भी  ज्यादा
उसे देख ,झंकृत होते है ,दिल के तार ,और भी ज्यादा
जहाँ प्यार की उष्मा होती ,मौसम  सर्द  बदल जाते है
बढ़ती हुई उमर के संग संग ,दिल के दर्द बदल जाते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू '
कंबल मुझको नहीं छोड़ता

लाख छुड़ाना चाहूँ कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता
बहुत पुराना ,मुझ संग रिश्ता ,बंधा हुआ है ,नहीं तोड़ता

जब जब भी मौसम बदला है ,सिहराती शीतल ऋतू आई
जिसने मुझको प्रबल शीत से ,रखा बचा और दी गरमाई
जिसने मुझको ,अपने आँचल में ढक ,माँ का प्यार दिया है
नरम मुलायम तन से सहला ,पत्नी सा व्यवहार किया है
मैं जिसके आगोश में बंध कर ,कितनी ही रातें सोया हूँ
परेशनियां ,चिताओं में ,जिससे मुंह  ढक  कर रोया हूँ
मैं भी बूढा ,वो भी बूढा ,वो मुझसे मुख नहीं मोड़ता
चाहूँ लाख छोड़ना कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता

जिसके संग अच्छे दिन काटे,उससे अब क्यों हाथ खींच लूं
वफ़ादार ,वो दुखी बिचारा ,मै क्यों उससे आँख मींच लूं
मीत ,सखा ,घरवाले कहते ,वृद्ध हुए ,मोह माया छोडो
खुली हवा में ,साँसे लो अब ,यह कंबल का बंधन छोडो
मैं भी दिल से यही चाहता ,अब मुझको आराम चाहिए
जीर्ण हो रही ,काया मेरी ,अब उसको विश्राम चाहिए
माया स्वयं ,पड़ी पीछे, मैं ,माया पीछे ,नहीं दौड़ता
चाहूँ लाख छोड़ना कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'