Tuesday, March 14, 2017

कल तक था सवाया,-आज हुआ पराया

एक जमाना था ,
जब एक रूपये का सिक्का ,चवन्नी के संग
याने कि सवा रुपया,भरता था जीवन में रंग
ये बड़ा शुभ माना जाता था
और समृद्धि का प्रतीक जाना जाता था
सवा रूपये के प्रसाद चढाने से,
पूरी होती मनोकामना थी 
सवा रूपये का चढ़ावा ,सवाया फल देगा ,
ऐसी धारणा थी
सुनते है मेरी दादी ने ,पोता पाने की आशा में ,
मनौती करवाई थी
और मेरे पैदा होने पर ,बालाजी को  ,
चूरमे की सवामनी चढाई थी
जब मैं स्कूल गया ,पण्डितजी को सवा रुपया चढ़ाया था
उसके बाद उन्होंने मुझे पढाया था
यूं तो मैं सच्ची लगन और मन से पढता था
पर मेरे पास होने पर हमेशा ,सवा रूपये का प्रशाद चढ़ता था
मेरी सगाई पर मेरे ससुर ने ,
मुझे चाँदी का रुपया और चवन्नी याने सवा रुपया दिया था
और अपनी बेटी के लिए ,मुझे फांस लिया था
और शादी के बाद ,जब मेरी बीबी घर में थी आयी
तो सब बोले थे,बहू तो है बेटे से सवाई
और आजतक भी वो मुझ पर सवाई ही पड़ रही है
हमेशा मुझ पर सवार रहती है ,सर पर चढ़ रही है
उन दिनों स्कूल मे ,अद्धा,सवैया और हूँठा के
पहाड़े रटाये जाते थे
और लोग सवा रूपये की दक्षिणा में ,
सत्यनारायण की कथा सम्पन्न कराया करते थे
और तो और हिंदी कविता  में ,
दो पंक्ति के दोहे और चार पंक्ति की चौपाई के संग
एक सवैया भी होता था,जिसका अपना ही था रंग
अब सवाल ये है कि आजकल,सवा को ये क्या हो गया है
सवा न जाने कहाँ  खो गया है
जबसे चवन्नी का चलन हवा हो गया है
तबसे बिचारा सवा,हमसे रुसवा हो गया है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

होली - एक अनुभव 
                        १  
न जाने कौन सी भाभी,न जाने कौन से भैया 
छिपा कर अपनी बीबी को ,थे रखते जौन से भैया 
पराये जलवों का जुमला  ,गए सब भूल होली में ,
हम मलते गाल भाभी के ,खड़े थे मौन से  भैया 
                            २ 

हुआ होली के दिन पूरा ,हमारा ख्वाब  बरसों का  
मली गुलाल गालों पर ,नहीं उनने  हमें  रोका 
इधर हम उनसे रंग खेलें,उधर पतिदेवता उनके,
हमारे माल पर थे साफ़ करते हाथ, पा  मौका 
                            ३ 
मुलायम ,स्वाद खोये सा,भरा मिठास है मन में 
श्वेत मैदे सा और खस्ता, गुथा  है रूप,यौवन में 
पगा है प्यार के रस में,बड़ी प्यारी सी है लज्जत,
तुम्हारे जैसा ही तो था,खिलाया गुझिया जो तुमने 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'