Sunday, December 4, 2011

कभी धूप-कभी छाँव

कभी धूप-कभी छाँव
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कभी छाँव है,कभी धूप है
जीवन का ये ही स्वरूप है
पग पग हमें दिग्भ्रमित करती,
मृग तृष्णा ये तो अनूप है
कभी गेंद से टप्पा खाते,
छूकर धरा ,पुनह उठ जाते
कभी  सहारा लिए डोर का,
बन पतंग ऊपर लहराते
कभी हवा के रुख के संग हम,
सूखे पत्ते से उड़ते है
कभी जुदाई की पीड़ा है,
कभी नये रिश्ते जुड़ते है
इस जीवन में,हर एक क्षण में,
होते अनुभव खट्टे,मीठे
फेंका कीचड में जो पत्थर,
तो तुम तक  आते हैं छींटे
कभी फूल है,कांटे भी है,
कोई भिखारी, कोई भूप है
जीवन का ये ही स्वरुप है,
कभी छाँव है ,कभी धूप है
तुमने जिसकी ऊँगली थामी,
नहीं जरूरी,राह दिखाये
अक्सर लेते पकड़ कलाई,
ऊँगली तुम थे,जिन्हें थमाये
सबके अपने अपने मतलब ,
कोई किस पर करे भरोसा
पहरेदार ,लूटते है घर,
अपने ही दे जाते धोका
जीवन वही सफल कर पाता,
जो अपने बल पर जीता है
नहीं गरल देता दूजों को,
वो जीवन अमृत पीता है
इस जीवन की थाह नहीं है,
यह तो गहरा,एक कूप है
कभी छाँव है,कभी धूप है,
जीवन का ये ही स्वरुप है
 मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र

तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
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तुम भी  स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
भैया ये    तो  है    प्रजातंत्र
अपने अपने ढंग से जीयो,
सुख शांति का है यही मन्त्र
तुम वही करो जो तुम चाहो,
हम वही करे ,जो हम चाहे 
फिर इक दूजे के कामो में,
हम टांग भला क्यों अटकाएं
जब अलग अलग अपने रस्ते,
तो आपस में क्यों हो भिडंत
तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
तुम गतिवान खरगोश और,
हम मंथर गति चलते कछुवे
तुम  प्रगतिशील हो नवयुगीन,
हम परम्परा के पिछ्लगुवे
हम है दो उलटी धारायें,
तुम तेज बहो,हम बहे मंद
तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
तुम नव सरिता से उच्श्रंखल ,
हम स्थिर, भरे सरोवर से
तुम उड़ते बादल से चंचल,
हम ठहरे है,नीलाम्बर से
है भिन्न भिन्न प्रकृति अपनी,
हम दोनों का है भिन्न  पंथ
हम भी स्वतंत्र,तुम भी स्वतंत्र
फिर आपस में क्यों हो भिडंत

मदन मोहन बहेती'घोटू'