Monday, January 5, 2015

रेखा

                  रेखा
इधर उधर जो भटका करती ,रेखा वक्र हुआ करती है
परिधि में जो बंध  कर रहती ,रेखा चक्र हुआ करती है
कितने ही बिंदु मिलते है ,तब एक रेखा बन पाती है
अलग रूप में,अलग नाम से ,किन्तु पुकारी सब जाती है
 अ ,आ,इ ,ई ,ए ,बी ,सी ,डी ,सब अपनी अपनी रेखाएं 
रेखाएं आकार  अगर  लें ,हंसती, रोती   छवि  बनाये
संग रहती पर मर्यादित है,  रेल  पटरियों  सी  रेखाएं
भले कभी ना खुद मिल  पाती ,कितने बिछुड़ों को मिलवाए 
कितनी बड़ी कोई रेखा हो ,वो भी छोटी पड़  जाती है
उसके आगे ,उससे लम्बी ,जब रेखाएं  खिंच जाती है
मर्यादा की रेखाओं में , ही  रहना   शोभा  देता  है
लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन ,सीता हरण करा देता है
इन्सां के हाथों की रेखाओं में उसका भाग्य लिखा है
नारी मांग ,सिन्दूरी रेखा में उसका  सौभाग्य  लिखा है
चेहरे पर डर की रेखाएं ,तुमको जुर्म बता देती है
तन पर झुर्री की रेखाएं, बढ़ती उम्र   बता देती है
सबसे सीधी रेखा वाला ,रस्ता सबसे छोटा होता
सजा वक्र रेखाओं में जो ,नारी रूप अनोखा होता
जब  भी  पड़े गुलाबी डोरे  जैसी रेखाएं  आँखों  में
मादकमस्ती भाव मिलन का,तुमको नज़र आये आँखों में
कुछ रेखा 'भूमध्य 'और कुछ रेखा ' कर्क'  हुआ करती है
इधर उधर जो भटका करती ,रेखा  वक्र हुआ करती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
  
 

सब्र की शिद्दत

                    सब्र की शिद्दत

हमें है याद बचपन में ,बड़े बेसब्रे होते थे,
                   नहीं जिद पूरी होती तो,बड़े बेचैन हो जाते
जवानी में भी बेसब्री ,हमारी कुछ नहीं कम थी,
                  बिना उनसे मिले पल भर ,अकेले थे न रह पाते
सब्र का इस बुढ़ापे में ,हमारे अब ये आलम है,
                  प्रतीक्षा भोर से करते ,रात तब ख्वाब है आते
नमूना सब्र करने का ,न होगा इससे कुछ बेहतर ,
                  नशा जो परसों करना है ,आज अंगूर हम खाते

घोटू