Wednesday, May 13, 2020

आपदा से अवसर

कहते है हरेक बुराई में ,छिप रहती कोई भलाई है
हम कठिन दौर से गुजरें है ,तब बात समझ में आयी है
जब जब हमने ,ठोकर खाई ,तब तब आई है ,हमें अकल
हम गिरे ,चोंट घुटने खायी ,तब आई चलाना बाइसिकल
दो चार जीत के दाव  पेंच,हर हार हमें सिखला देती
हर भटकन ,टेढ़े रस्ते की ,है सही राह ,दिखला देती
कितनी ही बार ,फ़ैल होना ,ले आता 'पास ' के पास हमे
करना संघर्ष ,सिखा देता ,जब जब भी मिलता ,त्रास हमें
जब आती कभी आपदा तो ,अवसर मिलता कुछ करने का
हम ढूंढ लिया करते उपाय ,संकट से दूर ,उबरने का
इस कोरोना की आफत में ,पाये अनुभव ,मीठे ,तीखे
पहले हम धोते हाथ सिरफ ,अब हाथ साफ़ करना सीखे
लोगों से रखी ,बना दूरी ,तब 'इंफेक्शन 'से बच पाये
जब हाथ मिलाना छोड़ दिया ,संस्कार नमस्ते के आये
बीबी बच्चों संग ,इतने दिन ,मस्ती में गुजरे ,संग रह कर
सुख परिवार का क्या होता यह याद रहेगा ,जीवन भर
जब हाथ बंटाया पत्नी के ,गृह कार्यों में सहयोग  दिया
इस योगदान ने थोड़े से  ,उनको कितना संतोष दिया
खाये नित नए नए व्यंजन ,पत्नी के हाथों ,स्वाद भरे
हम खेले ताश ,गुजारे दिन ,संडे जैसे ,आल्हाद भरे
बच्चों का जंक फ़ूड चस्का ,आलू के परांठे ,भुला दिए
घर की रौनक ने ,कर्फ्यू के ,सारे सन्नाटे  ,भुला दिए
बढ़ गया आत्मविश्वास बहुत ,सब मेआया फुर्तीलापन
अब पूरा घर चल सकता है ,बिन नौकर या फिर महरी बिन
बंद मटरगश्तियाँ  मॉलों की ,ना कोई सिनेमा या होटल
खर्चे फिजूल के बंद हुए ,घर खर्च रहा ,आधा केवल
अब स्वच्छ हवा ,निर्मल पानी ,दिखते है रातों में तारे
था 'लॉक डाउन 'पर 'मोरल अप 'दुःख में सुख छिपे हुए सारे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
प्रवासी श्रमिक की व्यथा कथा

मैं आज सुनाता हूँ तुमको ,बेबस श्रमिकों की व्यथा कथा
जिनने मीलों ,पैदल चल कर ,घर जाने की ,झेली  विपदा
देखा करते थे फिल्मों में ,रौनक  शहरों की ,बड़े बड़े
वो बाज़ारों की तड़क भड़क ,वो ऊंचे ऊंचे ,महल खड़े
वो कार ,मोटरें और बसें ,रेलें,मेट्रो सरपट चलती
हम कहाँ फसें है गाँवों में ,लगती थी हमको यह गलती
बस जोतो खेत ,बीज बोओ ,फसलें काटो ,रखवाली कर
ना सुख सुविधा ना नल बिजली ,छोटे मिटटी के ,कच्चे घर
जी बार बार करता था यह  ,हम छोड़े गाँव ,शहर जायें
वहां करें नौकरी ,ऐश करें ,पैसे कमायें और सुख पायें
था मना किया घरवालों ने ,पर हमने उनका दिल तोडा
दौलत के सपने ले मन में ,एक रोज गाँव हमने छोड़ा
गाँव के परिचित ,शहर बसे लोगों ने काम पर लगा दिया
पर जब प्रोजेक्ट ,हुआ पूरा ,तो उनने हमको ,भगा दिया
थोड़े दिन भटके इधर उधर ,जो मिलता छुटपुट काम किया
कुछ लोगों जब दी सलाह,हाथों में  रिक्शा थाम  लिया
अच्छा था काम ,मेहनत कर ,दो पैसे घर में ,बच जाते
पर बंद हुआ पेडल रिक्शा ,ई रिक्शे के आते आते
फिर ठेला ले, सब्जी फल भर ,बेचीं थी गली मोहल्ले में
इसमें भी ठीक कमाई थी ,दो पैसे बचते ,पल्ले में
चल रहा काम था ठीक ठाक ,पर कोरोना आफत आयी
कर्फ्यू लग गया ,काम सारा ,बंद करने की नौबत आयी
कुछ दिन काटे ,जैसे तैसे ,फिर भूखे पेट पड़ा सोना
ऐसे बिगड़े ,हालातों में ,बदहाली पर ,आया रोना
भूखे मरने की नौबत में ,अपना घर ,गाँव याद आया
दिल बोला आ अब लौट चलें ,शहरों ने बहुत है तडफाया
सब रेल,बसें थी बंद मगर ,कुछ साथी ने मिल ,हिम्मत कर
ये ठान लिया ,घर पहुंचेंगे ,धीरे धीरे ,पैदल चल कर
हम मरे न मरें करोना से ,भूखे रह कर मर जायेंगे  
खाने के लिए न तरसेंगे ,यदि हम अपने घर जाएंगे
था मीलों दूर गाँव अपना ,ना बचे  गाँठ में थे पैसे
था कठिन सफर ,मुश्किलों भरा ,पर काटेंगे ,जैसे तैसे
रस्ते में पुलिस ,कहीं रोकी तो पड़े कहीं पर थे डंडे
पर चोरो छुपके नज़र बचा ,अपना कितने ही हथकंडे  
हम बढे गाँव ,धीरे धीरे ,चलते ,रुकते ,सुस्ताते थे
कुछ  जगह लोग ,सेवाभावी ,हमको भोजन करवाते थे
चप्पल टूटी ,छाले निकले ,मिलजुल काटा ,रस्ता सबने
जैसे तैसे हम पहुँच गए उस प्यार भरे ,घर पर अपने
माँ के हाथों ,गुड़ रोटी खा ,मटके के जल से बुझी प्यास
लेटे  खटिया पर ,नीम तले ,मन में उल्लास ,मिट गए त्रास
दिल बोला  जिस मिट्टी जन्मे ,उस मिट्टी में दम तोड़ेंगे
सुख और शांति से जियेंगे ,हम गाँव कभी ना छोड़ेंगे
अपने बच्चों  को,पढ़ा लिखा ,काबिल इस कदर बना देंगे
गावों में सब सुविधा लाकर ,गाँवों को शहर बना देंगें

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '