Thursday, March 29, 2012

वो दिन कितने अच्छे होते थे

वो दिन कितने अच्छे होते थे
--------------------------

कई बार सोचा करता हूँ,
 वो दिन कितने अच्छे होते थे
जब एक घर में ,सात आठ बच्चे होते थे
माँ तो घर के  रोजमर्रा के काम संभालती थी
और बच्चों को,दादी पालती थी 
बाद में बड़े बच्चे,
छोटे बच्चों को सँभालने लगते थे
लड़ते झगड़ते भी थे,
पर आपस में प्यार भी बहुत करते थे
तब शिक्षा का व्यापारीकरण भी नहीं हुआ था,
 हर साल कोर्स की किताबें भी नहीं बदलती थी
कई वर्षों तक एक ही किताब चलती थी
बड़ों की किताबें छोटा ,
और फिर बाद वाला छोटा भी पढता था
वैसे ही बड़ों के कपडे छोटा,
और छोटे के कपडे उससे भी छोटा पहनता था
घर में चहल पहल रहती थी ,प्यार पलता था
और घर खुशियों से गूंजा  करता था
और अब एकल परिवार,एक या दो बच्चे
नौकरी करते माँ बाप,और तन्हाई में रहते बच्चे
टी वी से चिपके रह कर अपना वक़्त गुजारते है
स्कूल के होम वर्क का बोझ  ही इतना होता है,
कि मुश्किल से ही खेलने का समय निकालते है
दादा दादी,कभी कभी मेहमान बन कर आते है
और आठ दस दिन में चले जाते है
दादा दादी का वो प्यार और दुलार,
आजकल बिरलों को ही मिल पा रहा है
इसीलिए आज का बच्चा,
सारे रिश्ते नाते,रीति रिवाज ,
और प्यार भूलता जा रहा है
और दिन-ब-दिन जिद्दी होता जा रहा है
दादी कि कमी को शायद ऐसे भुलाता है
कि पिताजी को भी DADDY (डेडी या दादी )कह कर बुलाता है
और अब इकलौता  बेटा यदि कपूत निकल गया
तो समझो,माँ बाप का बुढ़ापा कि बिगड़ गया
उन दिनों जब होते थे सात आठ बच्चे
कुछ बुरे भी निकलते थे,लेकिन कुछ अच्छे
कोई न कोई तो सपूत  निकल ही जाता था
और माँ बाप का बुढ़ापा सुधर  जाता था
इसीलिए कई बार सोचता हूँ,
वो दिन कितने अच्छे होते थे
जब एक घर में सात आठ  बच्चे होते थे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हम बूढ़े हो गये हैं


हम बूढ़े हो गये हैं
---------------------

हम बूढ़े हो गये हैं,
अपना बुढ़ापा इस तरह काटते हैं
अब हम सभी को अपना प्यार बांटते है
राग,द्वेष सबसे पीड़ित थे,जब जवान थे
गर्व से तने रहते थे ,पर नादान थे
काम में व्यस्त रहते थे हरदम
बस एक ही धुन थी,खूब पैसा कमायें हम
भागते रहे, दोड़ते रहे
कितने ही अपनों का दिल तोड़ते रहे
न आगे देखा,न देखा पीछे
बस भागते रहे दौलत के पीछे
न दीन की खबर थी,न ईमान की
बस  कमाई में ही अटकी जान थी
और मंजिल मिलती थी जब तलक
बढ़ जाती थी,अगली मंजिल पाने की ललक
फंस गये थे मृगतृष्णा में ऐसे
कि नज़र आते थे बस पैसे ही पैसे
बहुत क्लेश किये,बहुत एश किये
दौलत के लिए दिन रात एक किये
पर शरीर की उर्जा जब ठंडी पड़ने लगी
और जिंदगी,अंतिम पढाव की ओर बढ़ने लगी
जब सारा जोश गया,तब हमें होंश आया
माया के चक्कर में हमने क्या क्या गमाया
दोस्त
छूटे,परिवार छूटा
अपनों का प्यार छूटा
और अब जब आने लगी है जीवन की शाम
ख़तम हो गया है सारा अभिमान
और हमें अब आया है ज्ञान
कि इतनी सब भागदौड़,
क्यों और किसके लिये करता है इंसान?
और अब हो गया है इच्छाओं का  अंत
तन और मन ,दोनों हो गये हैं संत
सच्चाई पर चलने लग गये है
बुराइयों से डरने लग गये है
अब हम,दिमाग की नहीं,दिल की बात मानते है
हम बूढ़े हो गये है,अपना बुढ़ापा इस तरह काटते है
अब हम सभी को अपना प्यार बांटते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'