Friday, May 1, 2015

पिसाई ही पिसाई

         पिसाई ही पिसाई
आदमी यूं तो रहता है ,अकेला मस्त मस्ती में
जानता है उसे पिसना ,पडेगा  फंस गृहस्थी में
मगर वो ढोल बाजे से,रचाता अपनी है शादी
और उसका बेंड बजता है,उमर भर की है बर्बादी
गृहस्थी  और दफ्तर में,हमेशा रहता  वो घिसता
बहू और सास झगडे भी ,बिचारा आदमी पिसता
गेंहूँ,मक्की जब पिसते है ,तभी रोटी है बन पाती
मसाले पिसते, खाने में ,तभी लज्जत है आ पाती
 पुदीना और धनिया पिस के,चटनी का मज़ा देते
रचा कर के पिसी मेंहदी ,वो हाथों को सजा  लेते
 और  मंहगाई के मारे ,आप और हम पिसे  जाते
साथ में गेंहू के सारे ,बिचारे घुन भी पिस   जाते
पिसाई से न ,लज्जत ही ,मगर बल भी है बढ़ जाता
अणु पिसता, बन परमाणु ,बड़ा बलवान बन जाता
पीसते दांत से खाना ,तभी हम है ,निगल पाते
हमें गुस्सा जब आता है ,पीस  कर दांत ,रह जाते
कहा 'घोटू' ने ये हंस कर ,मज़ा जीने का है पिस कर
है चन्दन एक लकड़ी पर,सर पे चढ़ती है वो घिस कर

मदन मोहन बाहेती' घोटू'
 

वो

                        वो

कोई कहता है बदली है,गरजती है,बरसती है ,
            कोई कहता है बिजली है,जो गिरती तो गज़ब ढाती
बहुत दिलकश,बहुत सुन्दर,बहुत नाजुक,रंगीली है ,
            वो खुद है फूल,फूलों पर ,मगर तितली सी मंडराती
अजब अंदाज आँखों का ,कोई कहता है मछली सी,
            कोई कहता है हिरणी सी,समझ ही हम नहीं पाते
  गजब ढाते है उस पर लब ,बदलते रहते है जब तब,
             कभी पंखुड़ी गुलाबी है ,कभी अंगार  दहकाते
सजी है मोतियों जैसी ,चमकते दांत की माला ,
              दौड़ती काटने को पर ,कभी जब कटकटाती है
कोई कहता वो काँटा है,बड़ी  तीखी  चुभन इनकी,
              कोई कहता वो गुल है पर,हज़ारों गुल खिलाती है
है उनकी जुल्फ बदली सी ,चढ़ी रहती जो उनके सर ,
             बड़ी मुश्किल से वो उसको,कहीं कर पाती है बस में
गूंथ कर प्यारी सी चोंटी ,उन्हें लाती है काबू में,
               लटक कर दोनों कन्धों पर,लगे नागिन सी वो डसने
कोई कहता है हिरणी सी,मोरनी सी कहे कोई ,
               या उनकी चाल कों ,गजगामिनी  कोई बताता है
कमल की नाल सी बांहे ,कदलीस्तंभ जंघाएँ,
                फलों से है लदी डाली ,चमन सा तन , सुहाना  है
कोई कहता है चंदा है ,कोई कहता है सूरज है ,
                कभी नदिया सी लहराती,कभी ममता का निर्झर है
कोई कहता सहेली है,कोई कहता पहेली है,
                 वो क्या है और कैसी है,समझना तुम पे निर्भर है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'