Tuesday, September 17, 2013

कविता कैसे बन जाती है

              कविता कैसे बन जाती है

तुम अक्सर पूछा करते हो ,कविता कैसे बन जाती है

लो ,मै तुमको बतलाता हूँ, कविता  ऐसे बन जाती है

रातों को नींद न जब आती ,जगता रहता,भरता करवट

जब सपन अधूरे रह जाते , होती है मन में अकुलाहट

कुछ अंतर्मन की पीडायें ,कुछ दुनियादारी के झंझट

तब  उभर उभर कर भाव सभी  ,शब्दों में ढलने लगते झट

होती है मुझे प्रसव पीड़ा , ले जनम कविता आती है

लो मै तुमको बतलाता हूँ ,कविता ऐसे  बन जाती है

इस जीवन के दुर्गम पथ पर,मिलते पत्थर ,चुभते कांटे

अनजान राह पर भटक भटक ,मिलते वीराने ,सन्नाटे

कुछ आते पल तन्हाई के ,जो मुश्किल से ,कटते ,काटे

संघर्षों के उस मौसम में ,जब वक़्त मारता है चांटे

पांच उंगलियाँ ,उपड गाल पर ,अपनी  छाप छोड़  जाती है

 लो मै तुमको बतलाता हूँ,कविता ऐसे बन जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

ऊंचाई का दर्द

            ऊंचाई का दर्द

मेरे मस्तक के हिम किरीट पर ,जब पड़ती है सूर्य किरण
पहले स्वर्णिम आभा देता ,फिर चांदी सा चमके चम चम
फिर ढक लेते मुझको बादल ,मै लुप्त प्राय सा हो जाता
खो जाता है व्यक्तित्व मेरा ,आँखों से ओझल  हो जाता
फिर ग्रीष्म ऋतू का तीक्ष्ण ताप,पिघलाता  मेरा तन पल पल
मै फिर हिम आच्छादित हो जाता ,जब फिर से आती शीत लहर
यह  ऊंचाई , यह  कद मेरा  ,सब करते है  मुझको  आभूषित
वह स्वर्ण मुकुट ,वह रजत मुकुट ,होते मस्तक पर आलोकित 
पर  सर पर हिम की शीतलता ,देती मुझको कितनी सिहरन
मेरा व्यक्तित्व लुप्त करते ,जब मुझे घेरते  मेघ सघन
यह ऊंचाई की पीड़ा है ,यह है ऊंचे कद का प्रसाद
ऊंचे हो,देखो, जानोगे ,तुम ऊंचाई से जनित त्रास
मै दिखता बहुत भव्य तुमको ,पर जाने मेरा अंतरमन
कितनी पीड़ा दायक होती ,है ऊंचाई की वो ठिठुरन 
मेरे मस्तक का हिम किरीट ,दिखता तो बड़ा सुहाना है
पर मुझ पर क्या गुजरा करती ,क्या कभी किसी ने जाना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सखी री ,सुन साजन बुढियाये

  घोटू के पद

सखी री ,सुन साजन बुढियाये
सर पर चाँद आन बैठा है ,और गाल पिचकाये
गयी लुनाई सब चेहरे की ,हाथ पाँव झुर्राये
ना तो मीठी बात करत है , और ना मीठा खाये
घुटन और घुटने की पीड़ा ,अब उनको तडफाये
रात न सोये,करवट बदले ,तकिया बांह दबाये
कितने ही दिन बीत गए है ,दाड़ी मुझे गड़ाये
घोटू याद आत है वो दिन,जब हम मौज उडाये

घोटू