Thursday, August 22, 2013

हुस्न का जादू

         हुस्न का जादू

तुम्हारे हुस्न का जादू ,चला है मेरे सर चढ़ कर
नहीं दुनिया में कोई भी,हसीं है तेरे से बढ़ कर
दिखा कर नाज़ और नखरे,हमारा दिल जलाती हो
कभी जाती लिपट और फिर छिटक के भाग जाती हो
बड़ी मादक  सी अंगडाई ,सवेरे उठ के जब लेती
कई छुरियां चलाती हो ,कलेजा चीर तुम देती
हमें बाहों में भर कर के ,नशा ,उन्माद भरती हो
और फिर छोडिये जी की,खुद  फ़रियाद करती हो
 बड़ी ही स्वाद ,प्यारी और मीठी ,चाकलेटी  हो
लगी हो जबसे होठों से,उतर की दिल में बैठी हो
अदाएं और जलवों से ,हमें बेबस भी करती हो
मज़ा भी पूरा लेती हो,और बस बस भी करती हो
ये सब अंदाज़ तुम्हारे,गजब के है,अजब से है
तुम्हारे इश्क में  पागल,दीवाने हम तो कब से है

मदन मोहन बाहेती'घोटू;

जन्म दिवस पर

  जन्म दिवस पर

उम्र सारी बेखुदी में कट गयी
उस सदी से इस सदी में कट गयी
जमाने ने ,ढाये कितने ही सितम ,
छाई गम की बदलियाँ और छट गयी
कौन अपना और पराया कौन है,
गलतफहमी थी,बहुत,अब हट गयी
मुस्करा कर सभी से ऐसे मिले ,
दूरियां और खाइयाँ सब पट गयी
बचपने में ,जवानी में और कुछ ,
उम्र अपनी बुढ़ापे में बंट  गयी
लोग कहते एक बरस हम बढ़ गए ,
जिन्दगी पर एक बरस है घट गयी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ना है या हाँ है

        ना है या हाँ है

मै तुमसे चाहता  जब कुछ,तुम टालमटोल करती हो,
समझ में ये नहीं आता ,तुम्हारे मन का सच क्या है
कभी गर्दन हिलाती हो,कभी नज़रें झुकाती हो,
पता ही लग नहीं पाता ,तुम्हारी हाँ है या ना है
मैंने ये देखा है अक्सर,इस तरह ना नुकुर कर कर ,
मज़ा लेती हो तुम जी भर,हमेशा का ये किस्सा है
हुआ करता सदा ये है,हसीनो की अदा ये है ,
कि उनकी ना ना का मतलब ,अधिकतर होता ही हाँ है

घोटू 

उल्फत का भूत

          उल्फत का भूत

गया था पूछने इतना ,की मुझको तुझसे उल्फत है,
वो इक तरफ़ा या दो तरफ़ा ,बतादे अपने उत्तर से
न तूने घास कुछ डाली,न पूछा तेरी  अम्मा ने ,
बड़ा बेरंग लिफ़ाफ़े सा ,मै लौटा हूँ ,तेरे घर से
रहा अच्छा ये कि तेरे ,नहीं अब्बा जी थे घर पर ,
नहीं बच नहीं पाते कोई भी बाल ,इस सर पे
कहा कुछ भी किसी ने ना ,मुझे पर मिल गया उत्तर ,
चढ़ा था भूत उल्फत का ,उतर अब है गया सर से
घोटू

छोटा -बड़ा

           छोटा -बड़ा

छोटी छोटी बातें कितनी ,दिल में जब जाती है चुभ
बन के फिर नासूर फिर ,दिनरात देती  दर्द है
छोटी छोटी ,होम्योपेथी की है होती गोलियां,
ठीक वो कर देती पर ,कितने पुराने मर्ज़  है
छोटी रहती उमर तब निश्चिन्त और आज़ाद हम,
बड़े हो के आती चिंताएं और जिम्मेदारियां
बड़ी होकर ,खून करती ,काटती ,तलवार है,
छोटी होकर ,सुई करती ,फटे रिश्तों को सियां
छोटी सी आँखे दिखाती है बड़ी दुनिया तुम्हे ,
छोटा दिल जब तक धडकता ,तब तलक जाता जिया
अहमियत को छोटी चीजो को नकारो तुम नहीं ,
उनकी छोटी 'हाँ 'ने जाने क्या क्या है तुमको दिया
सूर्य को ही देखलो ,दिखता है कितना छोटा पर ,
हो रहे है रोशनी से उसकी ,हम रोशन  सभी
छोटे मुंह से अपने मै ये बात कहता हूँ बड़ी ,
कोई भी छोटा बड़ा ना ,बराबर है हम सभी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बिठानी पड़ती गोटी है

   बिठानी पड़ती गोटी है

आजकल हर जगह कुछ इस तरह का हो रहा कल्चर ,
काम कोई हो करवाना ,बिठानी पड़ती  गोटी  है
जगह जो हो अगर छोटी,तो लगती है रकम छोटी ,
बड़ी जो हो जगह तो फिर ,वहां कीमत भी मोटी  है
यहाँ नंगे है सब अन्दर ,ढका है आवरण ऊपर ,
कहीं पर सूट ,साड़ी है, कहीं केवल  लंगोटी  है
भले ही आदमी बाहर से हो कितना बड़ा दिखता ,
मगर देखा हकीकत में कि होती सोच छोटी है
अंगूठे छाप सैकड़ों ही,खेलते है करोड़ों में,
कोई पढ़ लिख के मुश्किल से ,जुटा पाता दो रोटी है
 ये सारा खेल किस्मत का,लिखा जो ऊपर वाले ने,
किसी का भाग्य अच्छा है,कोई तकदीर खोटी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तो हम जाने

          तो हम जाने

दिखा कर रूप का जलवा ,जलाती हम को रहती हो,
रसोई घर में जा चूल्हा ,जलाओ तुम तो हम जाने
अदाएं और लटकों से ,हमें करती हो तुम घायल ,
कभी इन घावों पर मलहम ,लगाओ तुम तो हम जाने
चला कर तीर नज़रों के ,कलेजा चीर देती हो,
सुई हाथों में ले टांका , लगाओ तुम ,तो हम जाने
हमें अपने इशारों पर ,नचाती रोज रहती हो ,
कभी जंगल के मोरों को ,नचाओ तुम ,तो हम जाने

घोटू

अपनी अपनी किस्मत

       अपनी अपनी किस्मत

समंदर  के   किनारे ,ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत ,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धूप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद  पल लहरें, भिगा कर  भाग जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर  तडफडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर,दिया ये रेत ने उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन महिलायें
तपाने धूप  में अपना बदन ,जब है यहाँ आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगो को
भला ,ऐसे में ,मै भी रोक ना पाती उमंगों को
हसीनो का वो मांसल , गुदगुदा तन पास आता है
मज़ा अद्भुत निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
 चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही मिलता मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'