Sunday, May 29, 2011

भरा हुआ घर

भरा हुआ घर
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मेरे मन के स्मृतिपटल पर,
अक्सर छा जाया करता है ,
बचपन का परिवार हमारा
भरा पूरा घर बार हमारा
दादी थी ,माँ,बाबूजी थे,
और सात हम भाई बहन थे
इक दूजे संग पीते खाते
लड़ते ,भिड़ते,हँसते, गाते
इतने बच्चे,इतनी रौनक,
मेहमान भी आते ,जाते
जल्दी उठ कर सुबह, सवेरे
कम काज में माँ लगती थी
झाड़ू,पोंछा,कपडे ,बर्तन
सबके लिए पकाती भोजन
लकड़ी और कंडों से तब जलता था चूल्हा
वो चौके में बैठ पकाती  दाल,सब्जियां
और सब बच्चे ,लाइन लगा बैठ जाते थे
थाली के नीचे रख कर कंडे का टेका
दल और सब्जी पुरसी जाती थाली में,
एक एक कर रोटी बनती ,
और नंबर से हम खाते थे
माँ के हाथ बनी उस रोटी और सब्जी में
सचमुच स्वाद गजब आता था
और शाम को,यही सिलसिला चल जाता था
करती दिन भर काम रात तक,
 माँ होगी कितनी थक जाती
किन्तु हमें कर तृप्त ,तृप्ति जो ,माँ की आँखों में थी आती
मुझे याद है
माँ ,बाबूजी सोते थे अपने कमरे में
और रात को ,लगती बिस्तर की लाइन ओसारे में
या गर्मी में  छत के ऊपर
हम सब बच्चे,
सुनते थे दादी से किस्से
कभी खेलते अन्ताक्षरी थे
वो क्या दिन थे
इतने बच्चे,
पर सब अनुशासन में रहते थे
इक दूजे का होमवर्क  निपटा देते थे
बड़े भाई की सभी किताबें ,
काम आ जाती थी छोटों के
और बड़ों के छोटे कपडे,
खुश हो पहन लिया करते थे
साथ उम्र के बड़े हुए हम
शादी करके सब बहने ससुराल गयी और,
हम सब भाई व्यस्त हुए अपने धंधों में
इधर उधर जा तितर बितर परिवार हो गया
हम बच्चों ने,
तब सचमुच जीया था बचपन
ना था इतना कोम्पीटीशन,न ही टेंशन
और आज मै,व्यस्त जॉब में
पत्नी भी सर्विस करती है,बहुत व्यस्त है
बच्चे होमवर्क में उलझे,या टी वी में हुए मस्त है
भूख लगे तो ,डोमिनो से,
एक पीज़ा मंगवा लेते है
सिर्फ एक सन्डे के दिन मिलजुल खाते है
अब एकल परिवार हो गए ,
जीवन पध्दिती में आया है कितना अंतर
पर मैंने जीया,भोगा है ,भरा हुआ घर

मदन मोहन बहेती 'घोटू'





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