तीन मुक्तक
१
घरों में दूसरों के झाँकने की जिनकी आदत है ,
फटे खुद के गरेंबां पर,नज़र उनको नहीं आते
भले ही बाद में खानी पड़े उनको दुल्लती ही,
मगर कुछ लोग अपनी शरारत से बाज ना आते
बदलती है बड़ी ही मुश्किलों से ,जिसकी जो आदत ,
जो खाया करते चमचों से,हाथ से खा नहीं पाते
ये सच है पूंछ कुत्ते की,सदा टेढ़ी ही रहती है ,
करो कोशिश कितनी ही,हम सीधी कर नहीं पाते
२
भले ही चोर कोई,चोरी करना छोड़ देता है,
मगर वो हेराफेरी से ,कभी ना बाज आता है
लोग सब अपने अपने ही ,तरीके से जिया करते,
जिन्हे लुंगी की आदत है ,पजामा ना सुहाता है
भले ही कितना सहलाओ ,डंक ही मारेगा बिच्छू ,
सांप को दूध देने से ,जहर उसका न जाता है
शराफत की कोई उम्मीद करना ,बद्तमीजो से ,
हमारा ये तजुर्बा है,हमेशा व्यर्थ जाता है
३
समंदर के किनारे की ,रेत पर चाहे कुछ लिख़ दो,
लहर जब आएगी अगली ,सभी कुछ मिट ही जायेगा
अगर तुमने उगाये केक्टस के पौधे गमले मे,
तो निश्चित है कोई ना कोई काँटा ,चुभ ही जाएगा
है काला काग होता है ,और काली है कोकिल भी ,
मगर जब बोलेंगे ,अंतर ,तुम्हे तब दिख ही जाएगा
भले सोना हो या पीतल चमकते दोनों,पीले है ,
कसौटी पर घिसोगे तो,भरम सब मिट ही जाएगा
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
No comments:
Post a Comment