उचटी नींद
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
मैं सो भी नहीं पाता ,आराम से,जी भर के
मुद्दत से नहीं आई ,है मुझको नींद गहरी
हो रात पूस की या फिर जेठ की दोपहरी
मैं वक़्त काटता हूँ,करवट बदल बदल के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
सीखा है जब से इसने ,यूं इस तरह उचटना
आता जो मुश्किलों से,जाता है टूट सपना
रहता हूँ पड़ा यूं ही,तकिये को बांह भरके
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
यादें पुरानी मेरा पीछा न छोड़ती है
गाहे बगाहे आकर,मुझको झंझोड़ती है
आते है याद मुझको,किस्से इधर उधर के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
था जब बसंती मौसम ,हम फूल थे महकते
उड़ते थे आसमां में,पंछी से हम चहकते
अब शिशिर में ठिठुरते है ठंडी आह भरके
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
मैं सो भी नहीं पाता ,आराम से,जी भर के
मुद्दत से नहीं आई ,है मुझको नींद गहरी
हो रात पूस की या फिर जेठ की दोपहरी
मैं वक़्त काटता हूँ,करवट बदल बदल के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
सीखा है जब से इसने ,यूं इस तरह उचटना
आता जो मुश्किलों से,जाता है टूट सपना
रहता हूँ पड़ा यूं ही,तकिये को बांह भरके
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
यादें पुरानी मेरा पीछा न छोड़ती है
गाहे बगाहे आकर,मुझको झंझोड़ती है
आते है याद मुझको,किस्से इधर उधर के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
था जब बसंती मौसम ,हम फूल थे महकते
उड़ते थे आसमां में,पंछी से हम चहकते
अब शिशिर में ठिठुरते है ठंडी आह भरके
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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