एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा
मैं थी थोड़ी भरी हुई सी ,मटकी,अपनी छत पर
दिल्ली की भोली जनता सी,तुम आये झट उड़ कर
सीधी सी टोपी पहने , गुलबंद गले में टांगा
मैं समझी भोला ,तुम निकले ,बड़े मतलबी कागा
सुख के सपने ,आश्वासन की ,कंकरी मुझ में डाली
मेरा पानी ऊपर आया ,तुमने प्यास बुझाली
सोचा था अपनाओगे पर तुम सत्ता के भूखे
मेरा हाल कभी ना पूछा ,रो रो आंसू सूखे
खांस खांस कर दिल्ली का पॉल्यूशन स्वयं बढ़ाया
और 'आड 'ईवन 'के चक्कर में जनता को उलझाया
रोज रोज झगड़े करते,अपनी दूकान चलाते
मुझको कचरे से मैला कर ,बेंगलूर भग जाते
तुम झूंठे,तुम्हारे वादे और सब बातें झूंठी
भोग रहे सत्ता का सुख तुम ,मुझ को करके जूंठी
आम आदमी का रस चूंसा ,और नहीं फिर सुध ली
बची सिरफ़ छिलके सी टोपी,और तुम निकले गुठली
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
मैं थी थोड़ी भरी हुई सी ,मटकी,अपनी छत पर
दिल्ली की भोली जनता सी,तुम आये झट उड़ कर
सीधी सी टोपी पहने , गुलबंद गले में टांगा
मैं समझी भोला ,तुम निकले ,बड़े मतलबी कागा
सुख के सपने ,आश्वासन की ,कंकरी मुझ में डाली
मेरा पानी ऊपर आया ,तुमने प्यास बुझाली
सोचा था अपनाओगे पर तुम सत्ता के भूखे
मेरा हाल कभी ना पूछा ,रो रो आंसू सूखे
खांस खांस कर दिल्ली का पॉल्यूशन स्वयं बढ़ाया
और 'आड 'ईवन 'के चक्कर में जनता को उलझाया
रोज रोज झगड़े करते,अपनी दूकान चलाते
मुझको कचरे से मैला कर ,बेंगलूर भग जाते
तुम झूंठे,तुम्हारे वादे और सब बातें झूंठी
भोग रहे सत्ता का सुख तुम ,मुझ को करके जूंठी
आम आदमी का रस चूंसा ,और नहीं फिर सुध ली
बची सिरफ़ छिलके सी टोपी,और तुम निकले गुठली
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
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