गर्मी की छुट्टियां -तब और अब
एक जमाना था जब
जैसे ही बच्चों की परीक्षायें निपटती थी
और गर्मी की छुट्टी लगती थी
हमारी पत्नीजी ,बच्चों के साथ ,
सीधे अपने मायके भगती थी
वैसा ही प्रोग्राम उनकी बहनो का भी होता था
जो देर सबेर अपने बच्चों के साथ ,
मायके आ धमकती थी
और जब सब बहने इकट्ठी हो जाती थी
तो ससुराल की व्यस्त जिंदगी से दूर ,
बच्चों की छुट्टियों के साथ साथ ,
खुद भी छुट्टियां मनाती थी
बस दिन भर खाना पीना और गप्पे मारना
इनका शगल होता था
बच्चे मिलजुल कर ,धमाल चौकड़ी मचाते थे ,
घर में खूब कोलाहल होता था
जब पूरा कुनबा जुड़ता था
तो उनकी माँ का भी पूरा प्यार उमड़ता था
रोज बनाये जाते थे तरह तरह के पकवान
और मंगाये जाते थे टोकरे भर आम
जिन्हे सब रात को छत पर बैठ कर खाया करते थे
देर तक गप्पे मारते और
रात को वहीँ सो जाया करते थे
मायके में बीबियां मनाती थी टोटल छुट्टी
भाई बहन से मेलमिलाप और पतिदेव से कुट्टी
बेचारे पतिदेव ,अकेले ,रूखी सूखी
या जैसी भी बन पड़ती ,खाया करते थे
और छुट्टियों के दिन गिनते हुए ,
कैसे भी तन्हाई में अपना काम चलाया करते थे
तब की छुट्टियां और आजकल की छुट्टिया ,
इनमे होता था बड़ा फर्क
तब आजकल की तरह नहीं होता था
छुटियों के लिए कोई होमवर्क या प्रोजेक्ट वर्क
वर्ना आजकल की छुट्टियों में तो बच्चों का
हो जाता है बेड़ा गर्क
बस कहीं कहीं ,आठ दस दिन के लिए ,
'समरकेम्प 'लगाए जाते है
जहाँ थोड़े खेलकूद और कुछ हुनर सिखाये जाते है
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ,
अनुशासन में रहने को कहा जाता है
और इसमें भी बड़ा खर्चा आता है
पर उन दिनों छुटियों में बेफिक्र ,
दादा दादी या नाना नानी के घर जाना
परिवार के अन्य बच्चों के साथ मिल कर
मस्तियाँ करना और मजे उठाना
दरअसल ये भी एक तरह के 'समरकेम्प 'होते थे
जहाँ चचेरे ,ममेरे और फुफेरे भाई बहन ,
साथ साथ रह कर ,भाईचारे के बीज बोते थे
एक दुसरे से अच्छी पहचान और प्यार बढ़ाया जाता था
ये वो समरकेम्प होते थे जहाँ ,
संयुक्त परिवार के सुख और
रिश्तेदारी निभाने का पाठ पढ़ाया जाता था
इनमे बच्चे ,खेल खेल में या स्पर्धा में
या नानी दादी से शाबाशी पाने
बहुत कुछ सीख जाया करते थे
रिश्तों की अहमियत पहचान जाया करते थे
मौसियों,भुआओ और मामियो से प्यार बढ़ता था
इस मेलजोल से उनका व्यक्तित्व निखरता था
बचपन में हर वर्ष ,कुछ दिन ,
साथ साथ रहने से ,रिश्ते इतने पनपते थे
कि वो ताउम्र अच्छी तरह निभते थे
वरना आज के कई बच्चे अपने ,
चचरे ,ममेरे और फुफेरे भाई बहनो को ,
जिन्हे आजकल 'कजिन ' कहते है ,
अच्छी तरह जानते तक नहीं है
पहचानते तक नहीं है
इसका कारण हम आजकल पहले जैसी ,
गर्मी की छुट्टियां नहीं मना रहे है
इसलिए भाईचारे के पौधे सूखते जारहे है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
एक जमाना था जब
जैसे ही बच्चों की परीक्षायें निपटती थी
और गर्मी की छुट्टी लगती थी
हमारी पत्नीजी ,बच्चों के साथ ,
सीधे अपने मायके भगती थी
वैसा ही प्रोग्राम उनकी बहनो का भी होता था
जो देर सबेर अपने बच्चों के साथ ,
मायके आ धमकती थी
और जब सब बहने इकट्ठी हो जाती थी
तो ससुराल की व्यस्त जिंदगी से दूर ,
बच्चों की छुट्टियों के साथ साथ ,
खुद भी छुट्टियां मनाती थी
बस दिन भर खाना पीना और गप्पे मारना
इनका शगल होता था
बच्चे मिलजुल कर ,धमाल चौकड़ी मचाते थे ,
घर में खूब कोलाहल होता था
जब पूरा कुनबा जुड़ता था
तो उनकी माँ का भी पूरा प्यार उमड़ता था
रोज बनाये जाते थे तरह तरह के पकवान
और मंगाये जाते थे टोकरे भर आम
जिन्हे सब रात को छत पर बैठ कर खाया करते थे
देर तक गप्पे मारते और
रात को वहीँ सो जाया करते थे
मायके में बीबियां मनाती थी टोटल छुट्टी
भाई बहन से मेलमिलाप और पतिदेव से कुट्टी
बेचारे पतिदेव ,अकेले ,रूखी सूखी
या जैसी भी बन पड़ती ,खाया करते थे
और छुट्टियों के दिन गिनते हुए ,
कैसे भी तन्हाई में अपना काम चलाया करते थे
तब की छुट्टियां और आजकल की छुट्टिया ,
इनमे होता था बड़ा फर्क
तब आजकल की तरह नहीं होता था
छुटियों के लिए कोई होमवर्क या प्रोजेक्ट वर्क
वर्ना आजकल की छुट्टियों में तो बच्चों का
हो जाता है बेड़ा गर्क
बस कहीं कहीं ,आठ दस दिन के लिए ,
'समरकेम्प 'लगाए जाते है
जहाँ थोड़े खेलकूद और कुछ हुनर सिखाये जाते है
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ,
अनुशासन में रहने को कहा जाता है
और इसमें भी बड़ा खर्चा आता है
पर उन दिनों छुटियों में बेफिक्र ,
दादा दादी या नाना नानी के घर जाना
परिवार के अन्य बच्चों के साथ मिल कर
मस्तियाँ करना और मजे उठाना
दरअसल ये भी एक तरह के 'समरकेम्प 'होते थे
जहाँ चचेरे ,ममेरे और फुफेरे भाई बहन ,
साथ साथ रह कर ,भाईचारे के बीज बोते थे
एक दुसरे से अच्छी पहचान और प्यार बढ़ाया जाता था
ये वो समरकेम्प होते थे जहाँ ,
संयुक्त परिवार के सुख और
रिश्तेदारी निभाने का पाठ पढ़ाया जाता था
इनमे बच्चे ,खेल खेल में या स्पर्धा में
या नानी दादी से शाबाशी पाने
बहुत कुछ सीख जाया करते थे
रिश्तों की अहमियत पहचान जाया करते थे
मौसियों,भुआओ और मामियो से प्यार बढ़ता था
इस मेलजोल से उनका व्यक्तित्व निखरता था
बचपन में हर वर्ष ,कुछ दिन ,
साथ साथ रहने से ,रिश्ते इतने पनपते थे
कि वो ताउम्र अच्छी तरह निभते थे
वरना आज के कई बच्चे अपने ,
चचरे ,ममेरे और फुफेरे भाई बहनो को ,
जिन्हे आजकल 'कजिन ' कहते है ,
अच्छी तरह जानते तक नहीं है
पहचानते तक नहीं है
इसका कारण हम आजकल पहले जैसी ,
गर्मी की छुट्टियां नहीं मना रहे है
इसलिए भाईचारे के पौधे सूखते जारहे है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
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