कैसे जाता वक़्त गुजर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
सोना,जगना ,खाना,पीना ,क्या जीवन बस इतना भर है
कम्बल कभी रजाई चादर ,या फिर पंखा ,कूलर,ए सी
ठिठुरन ,सिहरन,तपन,बारिशें ,मौसम की गति बस है ऐसी
अलसाया तन ,मुरझाया मन ,बढ़ी उमर का हुआ असर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
सूरज उगता ,दिन भर तपता ,फिर ढल जाता अस्ताचल में
लेकिन वो बेबस होता जब ,बादल ढक लेते है पल में
कब ढक ले आ बादल कोई, पल पल लगता रहता डर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
बीते दिन की यादों में मन, बस खोया ही रहता अक्सर
आते याद ख़यालों में वो,रख्खा जिनका ख्याल उमर भर
नहीं मगर उनको अब रहता ,ख्याल हमारा ,रत्ती भर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
सोना,जगना ,खाना,पीना ,क्या जीवन बस इतना भर है
कम्बल कभी रजाई चादर ,या फिर पंखा ,कूलर,ए सी
ठिठुरन ,सिहरन,तपन,बारिशें ,मौसम की गति बस है ऐसी
अलसाया तन ,मुरझाया मन ,बढ़ी उमर का हुआ असर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
सूरज उगता ,दिन भर तपता ,फिर ढल जाता अस्ताचल में
लेकिन वो बेबस होता जब ,बादल ढक लेते है पल में
कब ढक ले आ बादल कोई, पल पल लगता रहता डर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
बीते दिन की यादों में मन, बस खोया ही रहता अक्सर
आते याद ख़यालों में वो,रख्खा जिनका ख्याल उमर भर
नहीं मगर उनको अब रहता ,ख्याल हमारा ,रत्ती भर है
मुझको खुद मालूम नहीं है ,कैसे जाता वक़्त गुजर है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '