Saturday, November 28, 2020

Thursday, November 26, 2020

सूखे स्विमिंग पूल के आंसू

कोई मेरा  दरद  न जाने ,मैं 'कोविड 'का मारा
अबकी बरस ,मैं रहा तरस ,पाया ना दरस तुम्हारा

मेरा दिल जो कभी लबालब ,भरा प्रीत से रहता
एक  बरस से सूना है ये ,पीर   विरह की सहता
सूखा सूखा पड़ा हृदय है ,प्रेम नीर का प्यासा
दुःख केआंसू, खुद पी लेता ,रहता सदा उदासा
ना उठती अब मन में लहरें ,ना कोई हलचल है
ना ही शोर मचाते बच्चों की कुछ चहलपहल है
ना ही कपोत ,गुटरगूँ करते ,पिये चोंच भर पानी
ना किलोल करती जलपरियों की वह छटा सुहानी
याद आते वो सुबह शाम,वो रौनक,वो जलक्रीड़ा
सूने तट ,सूना अन्तरघट अब घट घट में पीड़ा
 मैं तुम्हारा ,तरणताल हूँ ,दीन  ,हीन  ,बेचारा
अबके बरस मैं रहा तरस ,पाया ना दरस तुम्हारा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

Tuesday, November 24, 2020

अतिथि ,तुम कब जाओगे

मैंने कोरोना से पूछा ,सुनो अतिथी तुम कब जाओगे
अब तक सबको बहुत सताया ,कितना और सताओगे

जब भी आते मेहमान है ,घर में रौनक छाती है
खुश हो जाते है घरवाले ,चहल पहल हो जाती है
लेकिन जब से मेहमान बन ,हुआ आगमन तुम्हारा
घर भर में छाई ख़ामोशी ,हर कोई दहशत मारा
लोग सभी घर में घुस बैठे ,सन्नाटा सा  फेल  रहा
तरह तरह की कई मुसीबत ,हर कोई है झेल रहा
मिलनसारिता दूर हुई ,लोगों ने दूरी  बना रखी
अपने मुंह पर पट्टी बांधे ,लोग हो रहे बहुत दुखी
अपना डेरा कितने दिन तक ,अब तुम और जमाओगे
मैंने कोरोना से पूछा ,सुनो अतिथि तुम अब जाओगे

बहुत दुष्ट प्रकृति तुम्हारी ,हरकत बहुत कमीनी है
कितनो के घरबार उजाड़े ,कितनी रोजी छीनी है
तुम छोटे पर कितने खोटे,सबको ये अहसास हुआ
 बने गले की फांस इस तरह ,मुश्किल लेना सांस हुआ
होली से ले दीवाली तक छटा गयी त्योंहारों की
शादी ,उत्सव भूल गए सब ,रौनक गयी बाजारों की
लेकिन अब 'वेक्सीन 'आगया ,निश्चित अंत तुम्हारा है
तुम्हे  भगा कर ही छोड़ेंगे  ,यह संकल्प हमारा है
सुनो समेटो अपना बोरी बिस्तर ,बच ना पाओगे
मैंने कोरोना से पूछा  सुनो अतिथि तुम कब जाओगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

Monday, November 23, 2020

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आज की बात

आज सुबह से ही पत्नीजी,  मुंह फुलाये  थी बैठी
ना खुद ने ही कुछ खाया ना मुझको  खाने को देती
मेरा बस कसूर था  इतना ,सजा हूं जिसकी भुगत रहा
तुम सुन्दर हो आज लग रही ,मैंने उनको सुबह कहा
मेरा 'आज 'शब्द कहना ही ,मेरी बहुत बड़ी गलती
इसका मतलब बाकी दिन मैं ,सुन्दर तुम्हे नहीं लगती
ऐसा ही है तो क्यों मुझको लाये थे तुम शादी कर ,
 जबसे आयी नयी पड़ोसन ,उस पर रहती गढ़ी नज़र
वो लगती है कनक छड़ी सी ,मैं तुमको तंदुरुस्त लगूं
वो लगती है चुस्त तुम्हे और मैं  थोड़ी सी सुस्त लगूं
मैं भी दुबली और छरहरी ,शादी पहले ,थी होती
तुम्हारे ही लाड प्यार ने मुझको बना दिया मोटी
मैं बोला स्वादिष्ट भोज नित्य मुझको पका खिलाती हो
रोज प्रेम से  खाता पर जब मटर पनीर बनाती हो
उस दिन तारीफ़ कर यदि कहता ,खाना बड़ा लजीज़ बना
कर मनुहार दुबारा देती ,मैं कर पाता नहीं मना
वैसी मटर पनीर की तरह  ,नज़र आयी तुम आज मुझे
 कहा  इसलिए ही सुन्दर था ,ऐसा था अंदाज मुझे
अपनी रूप प्रशंसा सुन तुम  बाग़बाग़ हो जाओगी
मटर पनीर की तरह दूना मुझ पर प्यार लुटाओगी
लेकिन मेरी मंशा को तुम समझ नहीं पायी डिअर
बात सुनी पत्नी ने मुझको ,लिया बांह में अपनी भर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बड़े न बनने के उपाय

अगर बड़ा बनना नहीं ,आता तुमको रास
बूढ़े माता पिता को ,सदा रखो तुम पास
सदा रखो तुम पास करो उनको सन्मानित
लो अनुभव का लाभ ,पाओ आशीषें अगणित
उनका भी मन लगे ,उमर वो लम्बी पायें
रहें  बड़े जो   साथ  ,आप छोटे कहलायें

घोटू 

Wednesday, November 18, 2020

आया बुढ़ापा -बिछड़े साथी

कहते जब वक़्त बुरा आता
साया भी साथ छोड़ जाता
ये ही सब गुजरी ,मेरे संग
जब देख बुढ़ापे के रंग ढंग
मेरे अंगों ने रंग बदला
कुछने छोड़ाऔर मुझे छला
वो जो थे मेरे बालसखा
जिनको मैंने सर चढ़ा रखा
जीवन भर जिनका रखा ख्याल
की सेवा अच्छी ,देखभाल
वो भूल गये सब नाते को
और आता देख बुढ़ापे को
उनने रंग बदला ,बुरे वक़्त
उनका सफ़ेद हो गया रक्त
जो काले थे और मतवाले
हो गए श्वेत अब वो सारे
रंग बदल ,बताते है ये सब
ये बूढा जवां नहीं है अब
मन को लगता है ठगा ठगा
जब अपनों ने दे दिया दगा
वे  परम मित्र कुछ बचपन के
जो सदा रहे प्रहरी बनके
मेरे मुख  में था  वास किया
मेरे संग संग हर स्वाद लिया
जैसा जब जब भी हुआ वक़्त
जो कुछ भी पाया नरम,सख्त
हमने मिलजुल कर, था काटा
 आपस में स्वाद ,सभी बांटा
जो दोस्त ,सखा ,हमराही थे
मेरे मजबूत सिपाही थे
उन सबकी भी हिल गयी जड़ें
जब वृद्ध उमर के पैर पड़े
वह शान ,अडिगता वीरोचित
अब नहीं बची उनमे किंचित
कुछ टूट गए ,कुछ है जर्जर
मैं नकली दांतो पर निर्भर
वैसे ही बचपन की साथी
दो आँखें प्यारी ,मुस्काती
जिनमे मैंने ,देखे सपने
और रखे बसा कर थे अपने
देखा जो बुढ़ापा ,घबराई
अब है धुंधलाई ,धुंधलाई
वह तनी त्वचा ,मेरे तन की
चिकनी और कोमल ,मख्खन सी
पर जब आयी वृद्धावस्था
उसकी भी हालत है खस्ता
वह जगह जगह से सिकुड़ गयी
झुर्री बन कर के उभर गयी
तो बचपन के साथी जितने
जिन पर हम गर्वित थे इतने
उनने जो बुढ़ापे को देखा
उसके आगे माथा टेका
वो सब जो मित्र कहाते है
व्यवहार विचित्र दिखाते है
अपनों का रंग बदलता है
बस मन को ये ही खलता है
बेटी बेटे ,नाती ,पोते
जो सगे  तुम्हारे है होते
बूढा होता जब हाल जरा
वो भी ना रखते ख्याल जरा
व्यवहार सभी का बदलाया
मैंने भी त्यागी  मोह माया
हिल गए दांत ,मैं नहीं हिला
ना ही बालों सा रंग बदला
आँखों जैसा ना धुंधलाया
और ना ही त्वचा सा झुर्राया
सब रिश्ते नाते गया भूल
और परिस्तिथि केअनुकूल
समझौता कर हालातों से
लड़ कर अपने जज्बातों से
अपने मन माफिक ,ठीक किया
खुश रह कर जीना सीख लिया
कोई की भी परवाह नहीं
अब रहे अधूरी ,चाह नहीं
मस्ती से खाता पीता  हूँ
इस तरह बुढ़ापा जीता हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू '
लक्ष्मी जी की प्रिय मिठाई

मैंने बड़ी गौर से देखा ,अबकी बार दिवाली में
कई मिठाइयां सजी हुई थी ,पूजा वाली थाली में
लड्डू ,बर्फी, काला जामुन ,गुझिया और जलेबी थी
बातें करती, बता रही सब ,अपनी अपनी खूबी थी
लड्डू बोला ,मैं लक्ष्मी प्रिय ,रहता सदा लुढ़कता हूँ
मैं भी लक्ष्मीजी के जैसा ,एक जगह ना टिकता हूँ
बरफी बोली ,मैं सुन्दर हूँ ,सबसे अलग निराली हूँ
नये नोट की गड्डी जैसी ,लक्ष्मी जी की प्यारी हूँ
कालाजामुन बोला ,लक्ष्मी ,का एक रूप मेरे जैसा
सभी जगह पर राज कर रहा ,मुझ जैसा काला पैसा
गुझिया बोलै ,मावा मिश्री ,मेरे अंदर स्वाद छिपा
जैसे पैसा छिपा तिजोरी में,प्रतीक मैं लक्ष्मी का
कहा जलेबी ने सुडौल सब ,अष्टावक्र मेरी काया
लेकिन जिसने मुझको खाया ,मज़ा स्वाद का है पाया
सीधी  राह न आये लक्ष्मी ,टेढ़ी मेढ़ी चाल चलो
तभी लक्ष्मी का सुख पाओ ,खुद को आप निहाल करो
लक्ष्मी पाने का पथ मुझसा ,तब रस मिलता सुखदायी
लक्ष्मी के प्रिय पकवानो में ,जीत जलेबी ने पायी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '



 

Friday, November 13, 2020

प्रकृति का चक्र -बुढ़ापा

यह प्रकृति का चक्र बुढ़ापा ,इसको कोई रोक ना पाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ,ये आया

प्राणायाम किया कसरत की ,सुबह शाम ,मैं भागा ,दौड़ा
खान पान  पर किया नियंत्रण मीठा और तला सब छोड़ा
रोज रोज जिम में जाकर के ,बहा पसीना ,ये कोशिश  की ,
मेरे तन पर ,चढ़ ना पाए ,चर्बी और मोटापा  थोड़ा
मैंने सभी प्रयास कर लिए
भूखे रह उपवास कर लिए
तरह तरह के योगआसन कर ,अपने तन को बहुत सताया
लाख कोशिशें की ,ना आये, पर जब आना था ये आया

कामनियों की संगत छोड़ी ,भले कामनाएं ना छूटी
मैं अब भी जवान हूँ,मन को ,देता रहा तसल्ली झूंठी
लेकिन तन में धीरे धीरे ,पैठ बनाता रहा बुढ़ापा ,
किया भले ही च्यवनप्राश का सेवन ,खाई जड़ी और बूटी
मैंने स्वर्ण भस्म भी खाई
खिली न पर काया मुरझाई
किये सभी उपचार लगन से ,लोगों ने जो भी बतलाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ,ये आया

अब जल्दी आती थकान है ,बात बात होती झुंझलाहट
कंचन काया पिघल रही है ,तनी त्वचा में है कुम्हलाहट
तन का जोश हुआ सब गायब ,और व्याधियां आसपास सब ,
याददाश्त कमजोर हो रही ,वृद्धावस्था की ये आहट
मन में रहती सदा विकलता
अब बच्चों पर रौब न चलता
इतनी जल्दी भूल गए सब ,मेरा इतना करा कराया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ये आया

बेहतर होगा खुल्ले दिल से ,करें बुढ़ापे का हम स्वागत
बहुत कर लिया सब के खातिर ,अब अपने से करें मोहब्बत
काम धाम की तज चिंताएं ,मस्ती काटें ,मौज मनाएं
सैर सपाटा करके देखें ,दुनिया में है कितनी रंगत
अपनी मनचाही सब करले
जीवन को खुशियों से भर लें
अपने पर भी खर्च करें हम ,जीवन में इतना जो कमाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ये आया

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

 

Tuesday, November 10, 2020

घर की रोटी

आप भले माने ना माने ,पर ये सच्ची ,खरी बात है
कितना इधरउधर मुंह मारो ,घर की रोटी लगे स्वाद है

यूं तो इस सारी दुनिया में ,पकवानो की कमी नहीं है
कई दावतें हमने खाई ,लेकिन उतनी जमी नहीं है
बाकी सब तो ललचाते है ,पर जो रोज रोज मुंह लगती
घर की रोटी ही सच पूछो ,तो है पेट हमारा  भरती
खालो तुम पकवान सैंकड़ो ,पर मिलता आल्हाद नहीं है
दुनिया में घर की रोटी से  ,बढ़ कर कोई स्वाद नहीं है
नरम नरम हाथों से बीबी ,देती गरम गरम जब फुलके
बिना कोई संकोच ,सलीके ,हम खाया करते है खुल के
घर के भोजन में मिलता है ,स्वाद प्यार का ,अपनेपन का
तन मन को तृप्ति देता है ,क्या कहना घर के भोजन का
सुख मिलता जब मियां बीबी ,मिल कर खाते साथ साथ है
कितना इधर उधर मुंह मारो ,घर की रोटी लगे स्वाद है

इसी तरह गोरी या काली ,दुबली पतली हो या हथिनी
इस दुनिया में प्यारी लगती सबको अपनी अपनी पत्नी
क्योंकि एक वो ही जो तुमको ,प्यार करे है सच्चे दिल से
इतना अधिक चाहने वाला ,नहीं मिल सकेगा मुश्किल से
जो निर्जल रह कर व्रत करती ,करवा चौथ ,तुम्हारे खातिर
ताकि सुहागन बनी रहे वो ,लम्बी उम्र तुम्हे हो हासिल
तुम्हारे सुख दुःख में शामिल ,साथ निभाती जो जीवन भर
जो तुम्हारी पूजा करती ,तुम्हे मान कर  पति परमेश्वर
ऐसा सच्चा जीवन साथी ,पा सबको होता गरूर है
मिले ना मिले जन्नत में पर, इस जीवन में वही हूर है
सुन्दर लोग कई दिखते है ,पर पत्नी की अलग बात है
प्यारी लगती घरवाली ज्यों ,घर की रोटी लगे स्वाद है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 
आयुष की प्रेम गाथा

सीधा सादा हमारा ,यह आयुष कुमार
बैंगलोर में  जा हुए  ,इसके नयना चार
इसके नयना चार ,किसी ने ऐसा लूटा
मन में पहली बार ,प्रेम का लड्डू फूटा
दिल को भायी दीपिका काजू कतली जैसी
इन्दौरी पोहे संग  आयी  गरम जलेबी

आयुष के मन में खिले ,फूलझड़ी के फूल
प्रेम पटाखा बज गया ,मौसम के अनुकूल
मौसम के अनुकूल ,आयी ऐसी दीवाली
दिल मे दीप  प्रेम का जला गयी दिलवाली
प्रेम रश्मि से किया दीपिका ने दिल रोशन
'घोटू 'जगमग आज हो रहा मन का आंगन

मंजू मन उल्लास है ,बनी बहू की सास
बेटा घोड़ी चढ़ेगा ,आया मौका ख़ास
आया मौका ख़ास ,बहुत जगदीश प्रफुल्लित
बेटे का घर बसा ,बहुत मन है आनंदित
रितू ने भाभी पायी ,रिया ने पायी मामी
हर्षित चाचा ,ताऊ ,और खुश नाना नानी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

Friday, November 6, 2020

नेताजी और कुर्सी

मैं  बोला  यह  नेताजी से
कब तक चिपकोगे कुर्सी से
देखो अपनी बढ़ी उमर को
किसी और को भी अवसर दो

बात सुनी ,बोले नेताजी
इससे चिपक ,रहूँ मैं राजी
मुझे सुहाती इसकी संगत
चेहरे पर रहती है  रंगत

इसके कारण ,सांझ सवेरे
चमचे मुझको रहते घेरे
ये छूटी ,सब मुंह फेरेंगे
मुझको बिलकुल भाव न देंगे

परम भक्त हूँ ,मैं कुर्सी का
इसी भावना से हूँ चिपका
इससे मुझको बहुत मोहब्बत
मुझे चिपकने की है आदत

बचपन चिपक रहा मैं  माँ से
और जवानी ,मेहबूबा से
अब कुर्सी से रहता चिपका
ये ही माँ ,ये ही मेहबूबा

चिपक रहूंगा ,इससे तब तक
हो जाता तैयार न जब तक
मेरा बेटा ,वारिस बन कर
जो बैठेगा ,इस कुर्सी पर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

Wednesday, November 4, 2020

प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना
हलवा पूरी गटक सकूं और चबा सकूं मैं चना चबैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मेरे तन की शुगर ना बढे ,रहे मिठास जुबाँ की कायम
तन का लोहा ठीक रहे और मन में लोहा लेने का दम
चलूँ हमेशा ही मैं तन कर ,मेरी कमर नहीं झुक पाये
यारों के संग,हंसी ठिठौली ,मिलना जुलना ना रुक पाये
जियूं मस्त मौला बन कर मैं ,काटूँ अपने दिन और रैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

भले आँख पर चश्मा हो पर टी वी और अखबार पढ़ सकूं
जवाँ हुस्न ,खिलती कलियों का,छुप छुप कर दीदार कर सकूं
चाट पकोड़ी ,पानी पूरी ,खा पाऊं ,लेकर चटखारे
बिमारियां और कमजोरी ,फटक न पाये पास हमारे
सावन सूखा ,हरा न भादौ ,रहे हमेशा मन में चैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मेरी  जीवन की शैली पर ,नहीं कोई प्रतिबंध लगाये
जीवनसाथी साथ रहे और संग संग हम दोनों मुस्काये
नहीं आत्म सन्मान से कभी ,करना पड़े कोई समझौता
बाकी तो फिर ,लिखा भाग्य में ,जो होना है ,वो ही होता
करनी ऐसी करूँ ,गर्व से ,मिला सकूं मैं सबसे नैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
करारापन लिए तन है
भरा मिठास से मन है
सुनहरी इसकी रंगत है
बड़ी माशूक तबियत है
नज़र पड़ते ही ललचाती
हमारे मन को  उलझाती
बहुत ही प्रिय ये सबकी है
गरम हो तो गजब की है
बड़ा इसमें है आकर्षण
लुभा लेती है सबका मन
हसीना ये बड़ी दिलकश
टपकता तन से यौवन रस
बड़ी कातिल ,फरेबी है
मेरी दिलवर ,जलेबी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

Tuesday, November 3, 2020

थोंपा गया नेता

पिताश्री के नाना की ,आखिरी विरासत
बार बार जनता नकारती ,मैं हूँ आहत
जो भी मेरे मन में आता ,मैं बक देता
थोंपा गया पार्टी पर जो, मैं वह  नेता

 कुछ चमचे है ,भीड़ सभा में जुड़वा  देते
कुछ चमचे है ,जो ताली है ,बजवा देते
कुछ चमचे ,क्या कहना है ,ये सिखला देते
कुछ चमचे ,टी वी पर खबरे ,दिखला देते
कुछ चमचे ,मस्जिद और दरगाहें ले जाते
कुछ चमचे मंदिर में है जनेऊ पहनाते
मैं पागल सा ,जो वो कहते ,सब करता हूँ
भरी धूप  और गरमी में ,पैदल चलता हूँ
मुझको कैसे भी रहना 'लाइम लाईट 'में
किन्तु हारता ही आया हूँ ,मैं  'फाइट'  में
आज इससे गठजोड़ और कल और किसी से
आज जिसे दी गाली ,कल है प्यार उसीसे
राजनीती में ,ये सब तो रहता है चलता
जब तक मन में है सत्ता का सपना पलता
कहता कोई अनाड़ी ,कोई पप्पू  कहता
लोगो का क्या ,जो मन चाहे ,कहता रहता  
किया नहीं है ब्याह ,अभी तक रहा छड़ा हूँ
कुर्सी खातिर ,घोड़ी पर भी नहीं चढ़ा हूँ
रोज रोज मैं कार्टून ,बनवाता अपना
मुझको पूरा करना है ,मम्मी का सपना
जब तक ना प्रधान बन जाऊं ,देश का नेता
तब तक कोशिश करता रहूँ ,चैन ना लेता
राजवंश में जन्म लिया  ये  ,मेरा हक़  है
क़ाबलियत पर मेरी लोगो को क्यों शक है
लोग मजाक उड़ाते,पर ना मन पर लेता
थोंपा गया पार्टी पर  जो , मैं वह नेता  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
घर की मुर्गी -दाल बराबर

मैं तो  तुम पर प्यार लुटाऊँ ,रखूँ तुम्हारा ख्याल बराबर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर  की मुर्गी दाल बराबर  

मैं तो करूं  तुम्हारी पूजा ,तुम्हे मान कर ,पति परमेश्वर
और तुम हरदम ,रूद्र रूप में ,रहो दिखाते ,अपने तेवर
मैं लक्ष्मी सी चरण दबाऊं ,तुम खर्राटे ,भर सो जाते
मुझे समझ ,चरणों की दासी , कठपुतली सी मुझे नचाते
करवा चौथ करूं मैं निर्जल ,और तुम खाते ,माल बराबर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

चाय पत्तियों सी मैं उबलू ,मुझे छान तुम स्वाद उठाओ
मैं अदरक सी कुटूं और तुम ,अपनी 'इम्युनिटी 'बढ़ाओ
फल का गूदा,खुद खाकरके,फेंको मुझे समझ कर छिलका
प्यार के बदले ,मिले उपेक्षा ,बुरा हाल होता है दिल का
नहीं सहन अब मुझसे होता ,अपना ये अपमान सरासर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

दाल बराबर नहीं सजन मैं ,रहना चाहूँ ,बराबर दिल के
इसीलिये 'इन्स्टंट कॉफी 'सी रहूँ तुम्हारे संग हिल मिल के
मैं बघार की हींग बनू ,चुटकी भर में ,ले आऊं लिज्जत
'स्टार्टर'से'स्वीटडिशों 'तक,मिले 'डिनर 'में ,मुझको इज्जत
चटखारे लेकर हम खाएं ,और रहें खुशहाल  बराबर
तुमने मुझको ,समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 

Monday, November 2, 2020

मैं कौन हूँ ?

मैं दुबली पतली और छरहरी हूँ
क्षीणकाय जैसे कनक की छड़ी हूँ
बाहर से होती नरम बड़ी हूँ
लेकिन अंदर से मैं बहुत कड़ी हूँ
मेरा दिल भले ही काला है
पर हर कोई मुझे चाहने वाला है
क्योंकि जब मैं चलती हूँ अपनी चाल
मेरा हर चाहनेवाला भावना में बहता है
कोरा कागज भी कोरा नहीं रहता है
आप जैसा भी चाहें ,
मुझको नचायें
क्योंकि मेरी लगाम आपके हाथ है
जीवन के हर पल में ,मेरा आपका साथ है
गिनती में ,हिसाब में
लाला की किताब में
दरजी की दूकान पर
मिस्त्री के कान पर
बनिये  के खातों में
मुनीमजी के हाथों में
कविता की पंक्तियों में
चित्रकार की कृतियों में
सब जगह है मेरा वास
सबके लिए हूँ मैं ख़ास
सबकी चहेती  हूँ
बार बार मरती हूँ ,बार बार जीती हूँ
जब मैं गुस्से में चलती हूँ ,लोग डरते है
उनके काले कारनामे उभरते है
क्योंकि मैं जोश भरी हुंकार हूँ
बिना धार की तलवार हूँ
ताजा समाचार हूँ
कल का अखबार हूँ
मैं विचारों का स्वरुप हूँ
योजनाओं का प्रारूप हूँ
चित्रकार का चित्र हूँ
कलाकारों की मित्र हूँ
हर विषय का ज्ञान हूँ
गणित हूँ ,वज्ञान हूँ
हिंदी ,अंग्रेजी हो या गुजराती
मुझे हर भाषा है लिखनी आती
कवि के हाथों में कविता बन जाती हूँ
लेखक के हाथों से कहानी सुनाती हूँ
प्रेमियों के दिल के भाव खोलती हूँ
प्रेमपत्र के हर शब्द में बोलती हूँ
ये बड़ी बड़ी इमारतें और बाँध
मेरी कल्पनाओं के है सब उत्पाद
ये रोज रोज बदलते फैशन
सब मेरे ही है क्रिएशन
मैं थोड़ी अंतर्मुखी हूँ
कोई दिल तोड़ देता तो होती दुखी हूँ
पर ये बोझ नहीं रखती दिल पर
बस थोड़ी सी छिलकर
फिर से नया जीवन पाती हूँ
हंसती हूँ,मुस्कराती हूँ
आपके काम आती हूँ
हालांकि मेरी काली जुबान है
फिर भी लोग मुझ पर मेहरबान है
क्योंकि मैं उनके लिए मरती हूँ तिल तिल
दूर करती हूँ उनकी हर मुश्किल
आप खुश होंगे मुझसे मिल
जी हाँ ,मैं हूँ आपकी पेन्सिल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '





 करवा चौथ पर विशेष

मेरी जीवन गाथा

एक मैं और मेरी तारा
मिलजुल कर करें गुजारा
हँसते हँसते मस्ती में ,
कट जाता समय हमारा

हम दो है नहीं अकेले
जीवन में नहीं झमेले
मैं टी वी रहूँ देखता ,
वो मोबाईल पर खेले

वो चाय पकोड़े बनाये
हम दोनों मिलकर खायें
आपस में गप्पें मारें ,
और अपना वक़्त बितायें

नित उठना,खाना,पीना
यूं ही खुश रह कर जीना
संतोषी सदा सुखी है ,
हमको है कोई कमी ना

हम ज्यादा घूम न सकते
अब जल्दी ही हम थकते
कमजोरी से आक्रान्तिक ,
है जिस्म हमारे ,पकते

मन में है नेक इरादे
हम बंदे सीधे सादे
देती है साथ हमारा ,
कुछ भूली बिसरी यादें

यूं गुजरी उमर हमारी
हम खटे उमर भर सारी
बच्चों को 'सेटल' करके ,
पूरी की जिम्मेदारी

जीवन भर काम किया है
प्रभु ने अंजाम दिया  है
अब जाकर चैन मिला है ,
हमको आराम दिया है

है ख़ुश हम हर मौसम में
सब देख लिया जीवन में
हम में न लड़ाई होती,
बस प्यार भरा है मन में
 
बच्चे इज्जत है देते
त्योहारों पर मिल लेते
छूकर के चरण  हमारे,
हमसे आशीषें  लेते

खुश कभी ,कभी हम चिंतित
डर  नहीं हृदय  में  किंचित  
एक दूजे का है सहारा ,
एक दूजे पर अवलम्बित

मन कभी भटकता रहता
मोह में है अटकता रहता
व्यवहार कभी लोगों का ,
है हमें खटकता रहता

मन सोच सोच घबराये
आँखों पे अँधेरा  छाये
हम में से कौन न जाने ,
किस रोज बिदा हो जाये

पर ऐसे दिन ना आयें
हम यही हृदय से चाहें
जब तक भी रहें हम जिन्दा ,
वो करवा चौथ मनाये

जो जब होगा ,देखेंगे
चिंता न फटकने देंगे
कैसी भी विपदा आये ,
हम घुटने ना टेकेंगे

ये मन तो है बंजारा
भटके है मारा मारा
हम बजा रहे इकतारा
एक मैं और मेरी तारा  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

Sunday, November 1, 2020

मैं कौन हूँ ?

मैं दुबली पतली और छरहरी हूँ
क्षीणकाय जैसे कनक की छड़ी हूँ
बाहर से होती नरम बड़ी हूँ
लेकिन अंदर से मैं बहुत कड़ी हूँ
मेरा दिल भले ही काला है
पर हर कोई मुझे चाहने वाला है
क्योंकि जब मैं चलती हूँ अपनी चाल
मेरा हर चाहनेवाला भावना में बहता है
कोरा कागज भी कोरा नहीं रहता है
आप जैसा भी चाहें ,
मुझको नचायें
क्योंकि मेरी लगाम आपके हाथ है
जीवन के हर पल में ,मेरा आपका साथ है
गिनती में ,हिसाब में
लाला की किताब में
दरजी की दूकान पर
मिस्त्री के कान पर
बनिये  के खातों में
मुनीमजी के हाथों में
कविता की पंक्तियों में
चित्रकार की कृतियों में
सब जगह है मेरा वास
सबके लिए हूँ मैं ख़ास
सबकी चहेती  हूँ
बार बार मरती हूँ ,बार बार जीती हूँ
जब मैं गुस्से में चलती हूँ ,लोग डरते है
उनके काले कारनामे उभरते है
क्योंकि मैं जोश भरी हुंकार हूँ
बिना धार की तलवार हूँ
ताजा समाचार हूँ
कल का अखबार हूँ
मैं विचारों का स्वरुप हूँ
योजनाओं का प्रारूप हूँ
चित्रकार का चित्र हूँ
कलाकारों की मित्र हूँ
हर विषय का ज्ञान हूँ
गणित हूँ ,वज्ञान हूँ
हिंदी ,अंग्रेजी हो या गुजराती
मुझे हर भाषा है लिखनी आती
कवि के हाथों में कविता बन जाती हूँ
लेखक के हाथों से कहानी सुनाती हूँ
प्रेमियों के दिल के भाव खोलती हूँ
प्रेमपत्र के हर शब्द में बोलती हूँ
ये बड़ी बड़ी इमारतें और बाँध
मेरी कल्पनाओं के है सब उत्पाद
ये रोज रोज बदलते फैशन
सब मेरे ही है क्रिएशन
मैं थोड़ी अंतर्मुखी हूँ
कोई दिल तोड़ देता तो होती दुखी हूँ
पर ये बोझ नहीं रखती दिल पर
बस थोड़ी सी छिलकर
फिर से नया जीवन पाती हूँ
हंसती हूँ,मुस्कराती हूँ
आपके काम आती हूँ
हालांकि मेरी काली जुबान है
फिर भी लोग मुझ पर मेहरबान है
क्योंकि मैं उनके लिए मरती हूँ तिल तिल
दूर करती हूँ   मुश्किल
आप खुश  है मुझसे मिल
जी हाँ ,मैं हूँ आपकी पेन्सिल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '