तू अपनी माँ को भूल गया
जिसने नौ महीने तुझे कोख में,किया अंकुरित ,जनम दिया
छाती के रस से सींच सींच ,पला पोसा और बड़ा किया
तूने सीखा घुटनों चलना,फिर खड़ा हुआ ,मुहं खोला था
माँ हुई ख़ुशी से गदगद थी,जब तू माँ माँ माँ बोला था
तू बिस्तर गीला करता माँ ,गोदी में तुझे उठाती थी
सूखे बिस्तर से तुझे उठा ,खुद गीले में सो जाती थी
दिन दूना रात चोगुना तू, बढ जाए मन्नत करती थी
पढ़ लिख कर बने बड़ा ,सुखमय जीवन हो,चाहत करती थी
तेरे प्रति माँ का अमित स्नेह,अब भी कायम है ,सच्चा है
तू कितना भी बन जाए बड़ा ,माँ को तो लगता बच्चा है
तेरी तारीफ़ करते करते ,जिसकी जुबान ना थकती है
धुंधली धुंधली सी आँखों से,वो राह तुम्हारी तकती है
बस एक बार आ जा मिलने,माँ का मन तुझे बुलाता है
गिर गिर चलना,बढना सीखा ,वो आँगन तुझे बुलाता है
वो तुझसे नहीं मांगती कुछ,बस थोडा प्यार चाहती है
बीमार पड़ी है एक बार ,तेरा दीदार चाहती है
उसका अब तक का स्नेह त्याग,क्या सचमुच यूं ही फिजूल गया
तू अपनी माँ को भूल गया
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