Friday, October 14, 2011

सानिध्य सुख

सानिध्य सुख
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मुझे मत ऐसे निहारो,मचल जाए मन न मेरा
इन नज़र की बिजलियों से,जल न जाये बदन मेरा
कौन सी उर्जा छुपी है,तुम्हारे तन की छुवन में
फैलती विद्युत तरंगें, शिराओं में और बदन में
तुम्हारे आगोश में आ ,जोश भरता  है उछाले
होश ही रहता कहाँ है,पास में आकर  तुम्हारे
प्यार की उष्मा तुम्हारे ,इस तरह तन को तपाती
मोम सा मन पिघल जाता,जब मिलन बाती जलाती
उस मिलन की वारुणी से,मचलता मदहोश मन है
तैर कर आनंद उदधि में,बदन में आती थकन है
डूब तुम में समा कर मन,दूर हो जाता जहाँ से
इस तरह मुझको सताना,बताओ सीखा कहाँ से
रसीला,मादक बहुत है,मिलन रस का मधुर प्याला
तुम्हारे सानिध्य का सुख,बड़ा ही अद्भुत  निराला

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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