जैसे जैसे दिन ढलता है------
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जैसे जैसे दिन ढलता है ,परछाई लम्बी होती है
जब दीपक बुझने को होता,बढ़ जाती उसकी ज्योति है
सूरज जब उगता या ढलता,
उसमे होती है शीतलता
इसीलिए वो खुद से ज्यादा,
साये को है लम्बा करता
और जब सूरज सर पर चढ़ता,
उसका अहम् बहुत बढ़ता है
दोपहरी के प्रखर तेज के,
भय से साया भी डरता है
परछाई बेबस होती है,और डर कर छोटी होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है
आसमान में ऊँची उड़ कर,
कई पतंगें इठलाती है
मगर डोर है हाथ और के,
वो ये बात भूल जाती है
उनके इतने ऊपर उठने ,
में कितना सहयोग हवा का
जब तक मौसम मेहरबान है,
लहराती है विजय पताका
कब रुख बदले हवा,जाय गिर,इसकी सुधि नहीं होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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जैसे जैसे दिन ढलता है ,परछाई लम्बी होती है
जब दीपक बुझने को होता,बढ़ जाती उसकी ज्योति है
सूरज जब उगता या ढलता,
उसमे होती है शीतलता
इसीलिए वो खुद से ज्यादा,
साये को है लम्बा करता
और जब सूरज सर पर चढ़ता,
उसका अहम् बहुत बढ़ता है
दोपहरी के प्रखर तेज के,
भय से साया भी डरता है
परछाई बेबस होती है,और डर कर छोटी होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है
आसमान में ऊँची उड़ कर,
कई पतंगें इठलाती है
मगर डोर है हाथ और के,
वो ये बात भूल जाती है
उनके इतने ऊपर उठने ,
में कितना सहयोग हवा का
जब तक मौसम मेहरबान है,
लहराती है विजय पताका
कब रुख बदले हवा,जाय गिर,इसकी सुधि नहीं होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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