Sunday, December 4, 2011

कभी धूप-कभी छाँव

कभी धूप-कभी छाँव
-----------------------
कभी छाँव है,कभी धूप है
जीवन का ये ही स्वरूप है
पग पग हमें दिग्भ्रमित करती,
मृग तृष्णा ये तो अनूप है
कभी गेंद से टप्पा खाते,
छूकर धरा ,पुनह उठ जाते
कभी  सहारा लिए डोर का,
बन पतंग ऊपर लहराते
कभी हवा के रुख के संग हम,
सूखे पत्ते से उड़ते है
कभी जुदाई की पीड़ा है,
कभी नये रिश्ते जुड़ते है
इस जीवन में,हर एक क्षण में,
होते अनुभव खट्टे,मीठे
फेंका कीचड में जो पत्थर,
तो तुम तक  आते हैं छींटे
कभी फूल है,कांटे भी है,
कोई भिखारी, कोई भूप है
जीवन का ये ही स्वरुप है,
कभी छाँव है ,कभी धूप है
तुमने जिसकी ऊँगली थामी,
नहीं जरूरी,राह दिखाये
अक्सर लेते पकड़ कलाई,
ऊँगली तुम थे,जिन्हें थमाये
सबके अपने अपने मतलब ,
कोई किस पर करे भरोसा
पहरेदार ,लूटते है घर,
अपने ही दे जाते धोका
जीवन वही सफल कर पाता,
जो अपने बल पर जीता है
नहीं गरल देता दूजों को,
वो जीवन अमृत पीता है
इस जीवन की थाह नहीं है,
यह तो गहरा,एक कूप है
कभी छाँव है,कभी धूप है,
जीवन का ये ही स्वरुप है
 मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

No comments:

Post a Comment