गाँव का वो घर-वो गर्मी की छुट्टी
मुझे याद आता है,गाँव का वो घर,
वो गर्मी की रातें, वो बचपन सलोना
ठंडी सी छत पर,बिछा कर के बिस्तर,
खुली चांदनी में,पसर कर के सोना
ढले दिन और नीड़ों में लौटे परिंदे,
एक एक कर उन सारों को गिनना
पड़े रात तारे ,लगे जब निकलने,
तो नज़रे घुमा के, उन सारों को गिनना
भीगा बाल्टी में, भरे आम ठन्डे,
ले ले के चस्के, उन्हें चूसना फिर
एक दूसरे को पहाड़े सुनाना,
पहेली बताना, उन्हें बूझना फिर
जामुन के पेड़ो पे चढ़ कर के जामुन,
पकी ढूंढना और खाना मज़े से
करोंदे की झाड़ी से ,चुनना करोंदे,
पकी खिरनी चुन चुन के लाना मज़े से
अम्बुआ की डाली पे,कोयल की कूहू,
की करना नक़ल और चिल्ला के गाना
,कच्ची सी अमियायें ,पेड़ों पर चढ़ कर,
चटकारे ले ले के,मस्ती में खाना
चूल्हे में लकड़ी और कंडे जला कर,
गरम रोटियां जब खिलाती थी अम्मा
कभी लड्डू मठरी,कभी सेव पपड़ी,
कभी ठंडा शरबत पिलाती थी अम्मा
कभी चोकड़ी ताश की मिल ज़माना,
कभी सूनी सड़कों पे लट्टू घुमाना
भुलाये भी मुझको नहीं भूलती है,
वो गर्मी की छुट्टी, वो बचपन सुहाना
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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